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२३-अध्ययन
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गाथा ४३-भोजराज उग्रसेन का ही दूसरा नाम है। कीर्तिराज (वि० १४९५ पूर्वती) ने भी अपने नेमिचरित में उग्रसेन को भोजराज और राजीमती को भोजपुत्री तथा भोजराजपुत्री कहा है। कुछ प्रतियों में ‘भोगराज' पाठ भी है, जो संगम नहीं प्रतीत होता।
अध्ययन २३ गाथा २-केशी कुमारश्रमण थे। अविवाहित ही श्रमण हो गए थे। शान्त्याचार्य बृहद्वृत्ति में कुमारश्रमण का यही अर्थ करते हैं। “कुमारश्चाऽसावपरिणीततया श्रमणश्च ।"
___ गाथा १२-जैन परम्परा के अनुसार प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ देव ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया था। दूसरे अजित जिन से लेकर तेईसवें पार्श्व जिन तक चातुर्याम धर्म का उपदेश रहा। इसमें ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को 'बहिद्धादाणाओ वेरमणं'-बहिस्ताद् आदान विरमण (बाह्य वस्तुओं के ग्रहण का त्याग) में समाहित कर दिया गया था। अजित जिन ने ऋषभदेव से समागत पाँच महाव्रतों को इस प्रकार चतुर्याम में क्यों परिवर्तित किया, यह अभी ऐतिहासिक मीमांसा से ठीक तरह स्पष्ट नहीं हो पाया है। इतिहास की आँखों में अभी यह पार्श्व परम्परा ही देखी गई है। प्रस्तुत अध्ययन में पार्श्व के चार महाव्रतों को 'याम' शब्द से और वर्धमान महावीर के पाँच महाव्रतों को 'शिक्षा' शब्द से सूचित किया है। यह भी एक रहस्य है।
भगवान् पार्श्व नाथ ने मैथुन को परिग्रह के अन्तर्गत माना था। स्त्री को परिगृहीत किए बिना मैथुन कैसे होगा? इसीलिए पत्नी के लिए 'परिग्रह' शब्द भी प्रचलित रहा है। यह एक नैतिक आदर्श की पवित्र धारणा है। इस दृष्टि से पार्श्व जिन ने भिक्षु के लिए ब्रह्मचर्य को अलग से स्थान नहीं दिया। वह सामान्यत: अपरिग्रह में ही अन्तर्भुक्त कर दिया गया था।
लगता है, पार्श्वजिन के बाद कुछ कुतर्क खड़े हुए होंगे कि स्त्री को विवाह के रूप में परिगृहीत किए बिना भी उसकी प्रार्थना पर यदि समागम किया जाए तो क्या हानि है? अपरिगृहीता के समागम का तो कोई निषेध नहीं है ? सूत्र कृतांग (१, ३, ४, १०, ११, १२) में ऐसे ही कुछ तर्कों का उल्लेख मिलता है। इन्हें सूत्रकृतांग में पार्श्वस्थ बताया गया है । वृत्तिकार ने उन्हें स्वयूथिक भी कहा है।
नो अपरिग्गहियाए इत्थीए जेण होई परिभोगो। ता तव्विरई इच्चअ अबंभविरइ त्ति पन्नाणं ।
-कल्पसमर्थनम् गा० १५
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