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उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण
के बाद क्रम से एक-एक केशखण्ड को निकाला जाए। जितने काल में वह पल्य अर्थात् कूप रिक्त हो, उतने काल को एक पल्य कहते हैं। इस प्रकार के दस कोडाकोडी पल्यों का एक सागर होता है। सागर अर्थात् समुद्र के जलकणों जितना विराट लम्बा कालचक्र। यह एक उपमा है, अत: उसे पल्योपम और सागरोपम भी कहते हैं।
गाथा ५१–'सिरसा सिर" का अर्थ है-शिर देकर शिर लेना। अर्थात् जीवन की कामना से निरपेक्ष रहकर मानव शरीर में सर्वोपरिस्थ शिर के समान सर्वोपरिवर्ती मोक्ष को प्राप्त करना । 'सिरं' के स्थान में 'सिरि' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ 'श्री' होता है। 'श्री' अर्थात् भावश्री-संयम, सिद्धि ।
अध्ययन १९ गाथा २-मृगापुत्र का मूल नाम बलश्री था। माता मृगा का पुत्र होने के नाते उसे मृगापुत्र भी कहते थे। प्राचीन युग में बहुविवाह की प्रथा होने के कारण पुत्रों के नाम पहचानने की दृष्टि से माता के नाम पर प्रचलित हो जाते थे, जैसे कि पृथा का पुत्र पार्थ, सुभद्रा का सौभद्रेय, द्रौपदी का द्रौपदेय, आदि।
गाथा ३-त्रायस्त्रिंश जाति के देवों को 'दोगन्दग' कहते हैं। ये जैन और बौद्ध परम्परा में बड़े ही महत्त्व के देव माने गए हैं। शान्त्याचार्य ने पुराने आचार्यों का उद्धरण देते हुए उन्हें सदा भोगपरायण कहा है। तथा च वृद्धा-त्रायस्त्रिंशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुन्दुगा इति भणंति।'
गाथा ४–चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि मणि कहलाते हैं, और शेष गोमेदक आदि रत्न।
गाथा १४-अत्यन्त बाधा उत्पन्न करने वाले कुष्ठ आदि रोग व्याधि कहे जाते हैं। और इनसे भिन्न ज्वर आदि रोग हैं। "व्याधयः-अतीव बाधाहेत्तव: कुष्ठादयो, रोगा ज्वरादयः'–बृहद्वृत्ति ।
गाथा १७-'किम्पाक' एक विष वृक्ष होता है। उसके फल खाने में सुस्वादु होते हैं, किन्तु परिपाक में भयंकर कटु अर्थात् प्राणघातक । किंपाक का शब्दार्थ ही है-'किम्' अर्थात् कुत्सित-बुरा 'पाक' अर्थात् विपाक-परिणाम है जिसका।।
गाथा ३६–सामान्यतया जैन मनियों की भिक्षा के लिए गोचर (गोचरी) शब्द का प्रयोग होता है। यहाँ कापोती वृत्ति का उल्लेख है। कबूतर सशंक भाव १. शिरशा शिरःप्रदानेनेव जीवितनिरपेक्षमिति । ....... सिरं ति शिर इव शिरः
सर्वजगदुपरिवर्तितया मोक्षः'-बृहवृत्ति। २. 'शिरसा मस्तकेन 'अत्यादरख्यापकमेतत्, श्रियं भावश्रियं संयमरूपां
तृतीयभवे परिनिर्वृत इति”-सर्वार्थसिद्धि वृत्ति ।
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