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१५-अध्ययन
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मकानों के आगे-पीछे के विस्तार आदि लक्षणों पर से शुभाशुभ का ज्ञान करना, वास्तु-विद्या है।
षड्ज, ऋषभ आदि सात कण्ठ स्वरों पर से शुभाशुभ का ज्ञान करना, स्वर विद्या है।
उक्त विद्याओं के प्रयोग से भिक्षा प्राप्त करना, भिक्षा का 'उत्पादना' नामक एक दोष है।
गाथा ८–'धूमनेत्त' को 'घूमनेत्र' के रूप में एक संयुक्त शब्द माना है। जबकि टीकाकार धूम और नेत्र दो भिन्न शब्द मानते हैं। उनके मतानुसार धूम का अर्थ है-मन: शिला आदि धूप से शरीर को धूपित करना, और नेत्र का अर्थ है-नेत्रसंस्कारक अंजन आदि से नेत्र 'आंजना'। सुप्रसिद्ध विचारक मनिश्री नथमल जी अपने संपादित दशवैकालिक और उत्तराध्ययन में धूमनेत्र का 'धुंए की नली से धुंआ लेना'-अर्थ करते हैं। उनके तर्क और उद्धरण द्रष्टव्य हैं।
स्नान से यहाँ वह स्नानविद्या अभिप्रेत है, जिसमें पुत्र प्राप्ति के लिए मन्त्र एवं औषधि से संस्कारित जल से स्नान कराया जाता है 'स्नानम्-'अपत्यार्थं मंत्रौषधि-संस्कृतजलाभिषेचनम्'-बृहद्वृत्ति ।
गाथा ९-आवश्यकनियुक्ति (गा० १९८) के अनुसार भगवान् ऋषम देव ने चार वर्ग स्थापित किये थे—(१) उग्र-आरक्षक, (२) भोग-गुरुस्थानीय, (३) राजन्य-समवयस्क या मित्र स्थानीय, (४) क्षत्रिय–अन्य शेष लोग। इस व्यवस्था से ध्वनित होता है कि कुछ लोगों को छोड़कर अधिकांश जन क्षत्रिय ही थे।
भोगिक का अर्थ सामन्त भी होता है। शान्त्याचार्य 'राजमान्य प्रधान पुरुष' अर्थ करते हैं। नेमिचन्द्र ने सुबोधा में 'विशिष्ट वेशभूषा का भोग करने वाले अमात्य आदि' अर्थ किया है।
'गण' से अभिप्राय: गणतन्त्र के लोगों से है। भगवान महावीर के समय में लिच्छवि एवं शाक्य आदि अनेक शक्तिशाली गणतन्त्र राज्य थे। बृज्जी गणतन्त्र में ९ लिच्छवि और ९ मल्लकी-ये काशी-कौशल के १८ गण राज्य सम्मिलित थे। कल्पसूत्र में इन्हें 'गणरायाणो' लिखा है। अतएव बृहद्वृत्ति में भी उक्त शब्द की व्याख्या करते हुए शान्त्याचार्य लिखते हैं—'गणा: मल्लादिसमूहाः' । १. “उग्गा भोगा रायण, खत्तिया संगहो भवे चउहा।
आरक्ख-गुरु-वयंसा, सेसा जे खत्तिया ते उ॥"
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