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________________ ३६-जीवाजीव-विभक्ति ४१७ २५४. तओ संवच्छरद्धं तु उसके बाद छह महिने तक विकृष्ट विगिटुं तु तवं चरे। तप करे। इस पूरे वर्ष में परिमित परिमियं चेव आयामं (पारणा के दिन) आचाम्ल करे। तंमि संवच्छरे करे॥ २५५. कोडीसहियमायाम बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक कट्ट संवच्छरे मुणी। कोटि-सहित अर्थात् निरन्तर आचाम्ल मासद्धमासिएणं तु करके फिर मुनि पक्ष या एक मास का आहारेण तवं चरे ।। आहार से तप अर्थात् अनशन करे। २५६. कन्दप्पमाभिओगं ___ कांदी, आभियोगी, किल्बिषिकी, किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च। मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति देने एयाओ दुग्गईओ वाली हैं। ये मृत्यु के समय में संयम मरणम्मि विराहिया होन्ति ॥ की विराधना करती हैं। २५७. मिच्छादंसणरत्ता जो मरते समय मिथ्या-दर्शन में सनियाणा हु हिंसगा। अनुरक्त हैं, निदान से युक्त हैं और इय जे मरन्ति जीवा हिंसक हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ तेसिं पुण दुल्लहा बोही॥ २५८. सम्मइंसणरत्ता जो सम्यग्-दर्शन में अनुरक्त हैं, अनियाणा सुक्कलेसमोगाढा। निदान से रहित हैं, शुक्ल लेश्या में इय जे मरन्ति जीवा अवगाढ-प्रविष्ट हैं, उन्हें बोधि सुलभ . सुलहा तेसिं भवे बोही॥ है। २५९. मिच्छादसणरत्ता जो मरते समय मिथ्या-दर्शन में सनियाणा कण्हलेसमोगाढा। अनुरक्त हैं, निदान सहित हैं, कृष्ण इज जे मरन्ति जीवा लेश्या में अवगाढ हैं, उन्हें बोधि बहुत तेसिं पुण दुल्लहा बोही।। दुर्लभ है। २६०. जिणवयणे अणुरत्ता जो जिन-वचन में अनुरक्त हैं, जिणवयणं जे करेन्ति भावेण। जिन-वचनों का भावपूर्वक आचरण अमला असंकिलिट्ठा करते हैं, वे निर्मल और रागादि से ते होन्ति परित्तसंसारी॥ असंक्लिष्ट होकर परीतसंसारी (परिमित संसार वाले) होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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