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उत्तराध्ययन सूत्र
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद होते
२४७. एएसिं वण्णओ चेव
गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वा वि विहाणाइं सहस्सओ॥
२४८. संसारत्था य सिद्धा य
इइ जीवा वियाहिया। रूविणो चेवऽरूवी य
अजीवा दुविहा वि य॥ २४९. इइ जीवमजीवे य
सोच्चा सद्दहिऊण य। सव्वनयाण अणुमए
रमेज्जा संजमे मुणी॥ २५०. तओ बहूणि वासाणि
सामण्णमणुपालिया। इमेण कमजोगेण
अप्पाणं संलिहे मुणी॥ २५१. बारसेव उ वासाई
संलेहुक्कोसिया भवे। संवच्छरं मज्झिमिया
छम्मासा य जहनिया। २५२. पढमे वासचउक्कम्मि
विगईनिज्जूहणं करे। बिइए वासचउक्कम्मि
विचित्तं तु तवं चरे। २५३. एगन्तरमायाम
कट्ट संवच्छरे दुवे। तओ संवच्छरद्धं तु नाइविगिटुं तवं चरे॥
उपसंहार
इस प्रकार संसारी और सिद्ध जीवों का व्याख्यान किया गया। रूपी
और अरूपी के भेद से दो प्रकार के अजीवों का भी व्याख्यान हो गया। ___ जीव और अजीव के व्याख्यान को सुनकर और उसमें श्रद्धा करके ज्ञान एवं क्रिया आदि सभी नयों से अनुमत संयम में मुनि रमण करे।
तदनन्तर अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस अनुक्रम से आत्मा की संलेखना-विकारों से क्षीणता करे।
उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की होती है। मध्यम एक वर्ष की, और जघन्य छह मास की है।
प्रथम चार वर्षों में दुग्ध आदि विकृतियों का निर्यहण-त्याग करे, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करे।
फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास और फिर एक दिन भोजन) करे। भोजन के दिन आयाम
-आचाम्ल करे। उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महिनों तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चौला आदि) तप न करे।
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