________________
३६ - जीवाजीव - विभक्ति
२१२. कप्पाईया उ जे देवा दुविहा ते वियाहिया | गेविज्जाऽणुत्तरा चेव विज्जा नवविहा तहिं ॥
चेव
हेमा-मज्झिमा तहा । हेट्टिमा उवरिमा
चेव
मज्झिमा हेट्ठिमा तहा ॥
२१३. हेट्ठिमा हेट्टिमा
२१४. मज्झिमा-मज्झिमा चेव मज्झिमा उवरिमा तहा । उवरिमा हेट्ठिमा उवरिमा - मज्झिमा तहा ॥
चेव
२१५. उवरिमा - उवरिमा चेव
इय गेविज्जगा सुरा । विजया वेजयन्ता य
जयन्ता अपराजिया |
२१६. सव्वट्टसिद्धगा चेव
पंचहाऽणुत्तरा सुरा । इइ वेमाणिया देवा
गहा एवमायओ ॥
एगदेसम्मि
ते सव्वे परिकित्तिया ।
२१७. लोगस्स
इतो कालविभागं तु वुच्छं तेसिं चडव्विहं ||
पप्पऽणार्डया
अपज्जवसिया विय। ठिडं पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय ॥
२१८. संत
Jain Education International
४११
कल्पातीत देवों के दो भेद हैंग्रैवेयक और अनुत्तर। ग्रैवेयक नौ
प्रकार के हैं
अधस्तन - अधस्तन,
अधस्तन
मध्यम, अधस्तन - उपरितन, मध्यम
अधस्तन
मध्यम - उपरितन,
मध्यम- मध्यम, उपरिजन - अधस्तन, उपरितन-मध्यम
और उपरितन - उपरितन — ये नौ ग्रैवेयक हैं।
विजय,
वैजयन्त, जयन्त,
अपराजित
और सर्वार्थसिद्धक—ये पाँच अनुत्तर देव हैं।
इस प्रकार वैमानिक देव अनेक प्रकार के हैं ।
वे सभी लोक के एक भाग में व्याप्त हैं ।
इस निरूपण के बाद चार प्रकार से उनके काल-विभाग का कथन करूँगा ।
वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादिअनन्त हैं । स्थिति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं I
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org