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३६ - जीवाजीव- विभक्ति
१४२. संखिज्जकालमुक्कोसं अन्तोमुहुतं जहन्नयं । तेइन्दियकायठिई तं कार्यं तु अचओ ॥
१४३. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । तेइन्दियजीवाणं अन्तरेयं वियाहियं ॥ १४४. एएसिं वण्णओ चेव ओ सफासओ । संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो ||
१४५. चउरिन्दिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया ।
पज्जत्तमयज्जत्ता
तेसिं भेए सुणेह मे ॥
१४६. अन्धिया पोत्तिया चेव
मच्छिया मसगा तहा ।
भमरे कीड-पयंगे य
ढिकुणे कुंकु तहा ॥
१४७. कुक्कुडे सिंगिरीडी य
नन्दावतेय 'विछिए । डोले भिंगारी य विरली. अच्छिवेह ||
१४८. अच्छिले माहए अच्छि -
रोडए विचित्ते चित्तपत्तए । ओहिंजलिया जलकारी य नीया तन्तवगाविया ॥
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उत्कृष्ट
उनकी काय स्थिति संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की हैं। त्रीन्द्रिय शरीर को न छोड़कर, निरंतर त्रीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना काय स्थिति है ।
त्रीन्द्रिय शरीर को छोड़कर पुन: त्रीन्द्रिय के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूत और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है ।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं।
चतुरिन्द्रियत्रस
चतुरिन्द्रिय जीव के दो भेद हैंपर्याप्त और अपर्याप्त। उनके भेद तुम मुझ से सुनो।
अन्धिका, पोत्तिका, मक्षिका, मशक-मच्छर, भ्रमर, कीट, पतंग, ढिकुण, कुंकुण
कुक्कुड, शृंगिरीटी, नन्दावर्त, बिच्छू डोल, भृंगरीटक, विरली, अक्षिवेधक
विचित्र,
अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, चित्र - पत्रक, ओहिंजलिया, जलकारी, नीचक, तन्तवक—
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