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३६ - जीवाजीव - विभक्ति
८७. सन्तइं
पप्पाईया
अपज्जवसिया विय । ठिझं पडुच्च साईया सपज्जवसिया व य ॥
८८. सत्तेव
सहस्साई
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वासाणुक्कोसिया भवे । आउट्टिई आऊणं
अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ॥
८९. असंखकालमुक्कोसं अन्तेमुहुत्तं काय
तं कायं तु अमुंचओ
जहन्निया । आऊणं
९०. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए
आऊजीवाण अन्तरं ॥
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९९. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रस- फासओ संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्सो ||
९२. दुविहा वणस्सईजीवा
सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता
एवमेए दुहा पुणो ॥
९३. बायरा जे उ पज्जत्ता
दुविहा ते वियाहिया । साहारणसरीरा य पत्तेगा य तहेव य ॥
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अकायिक जीवं प्रवाह की अपेक्षा से अनादि - अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि- सान्त हैं ।
उनकी सात हजार वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु-स्थिति
।
उनकी असंख्यात काल की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य काय-स्थिति है । अप्काय को छोड़कर निरन्तर अप्काय में ही पैदा होना, काय स्थिति
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अप्काय को छोड़कर पुनः अप्काय में उत्पन्न होने का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का
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वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से अप्काय के हजारों भेद हैं ।
- वनस्पति काय
वनस्पति काय के जीवों के दो भेद - सूक्ष्म और बादर । पुनः दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं ।
बादर पर्याप्त वनस्पतिकाय के जीवों के दो भेद हैं- साधारण - शरीर और प्रत्येक - शरीर ।
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