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३६-जीवाजीव-विभक्ति
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७४. हरियाले हिंगुलुए
मणोसिला सासगंजण-पवाले। अब्भपडलऽब्भवालय बायरकाए मणिविहाणा ॥
हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, सस्यक अथवा सासक (धातु-विशेष), अंजन, प्रवाल-मूंगा, अभ्र-पटल, अभ्रबालुकअभ्रक की पड़तों से मिश्रित बालू । और विविध मणि भी बादर पृथ्वी काय के अन्तर्गत हैं
गोमेदक, रुचक, अंक, स्फटिक, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, भुजमोचक, इन्द्रनील,
चन्दन, गेरुक एवं हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त और सूर्यकान्त।
७५. गोमेज्जए य रुयगे
अंके फलिहे य लोहियक्खे य। मरगय-मसारगल्ले
भुयमोयग-इन्दनीले य॥ ७६. चन्दण-गेरुय-हंसगब्भ
पुलए सोगन्धिए य बोद्धव्वे। चन्दप्पह-वेरुलिए
जलकन्ते सूरकन्ते य॥ ७७. एए खरपुढवीए
भेया छत्तीसमाहिया। एगविहमणाणत्ता
सुहुमा तत्थ वियाहिया॥ ७८. सुहुमा सव्वलोगम्मि
लोगदेसे य बायरा। इत्तो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं॥
ये कठोर पृथ्वीकाय के छत्तीस भेद हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव एक ही प्रकार के हैं, अत: वे अनानात्व हैं, अर्थात् नाना प्रकार के भेदों से रहित हैं ।
सूक्ष्म पृथ्वीकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में और बादर पृथ्वीकाय के जीवलोक के एक देश-भाग में व्याप्त हैं। अब चार प्रकार से पृथ्वीकायिक जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा। __ पृथ्वीकायिक जीव प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं।
७९. संतई पप्पऽणाईया
अपज्जवसिया वि य। ठिइं पडुच्च साईया
सपज्जवसिया वि य॥ ८०. बावीससहस्साइं
वासाणुक्कोसिया भवे। आउठिई पुढवीणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया॥
उनकी बाईस हजार वर्ष की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु-स्थिति है।
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