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अनगार-मार्ग - गति
असंगता वीतरागता का प्रथम चरण है।
केवल घर छोड़ने भर से ही कोई अनगार नहीं हो जाता । अनगार धर्म एक सुदीर्घ साधना है, जिसके लिए सतत सतर्क एवं सजग रहना होता है । ऊँचे-नीचे, अच्छे-बुरे प्रसंगों पर अपने को संभालना पड़ता है । अत: अनगार मार्ग पर गति के लिए साधक को केवल शास्त्रविहित स्थूल क्रियाकाण्डों पर ही नहीं, अन्य सूक्ष्म बातों पर भी लक्ष्य रखना आवश्यक है। क्योंकि बाहर में संग से मुक्त होना आसान है, किन्तु भीतर में असंग होना एक दूसरी ही बात है । और भीतर में असंग तभी हुआ जा सकता है, जब देहादि से सम्बन्धित आसक्ति एवं रागात्मक बन्धन समाप्त हो जाएँ । यहाँ तक कि साधक न मृत्यु को चाहे, न जीवन को जीवन-मरण की चाह से ही जो मुक्त हो गया है, उसे और कौनसी दूसरी चाह हो सकती है ? अनगार धर्म इच्छानिरोध का ही धर्म है। संसार का अर्थ ही कामना है, वासना है । और उससे मुक्त होना ही वस्तुतः संसार- मुक्ति है ।
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