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३२- प्रमाद - स्थान
४०. सद्दाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ surरूवे चित्तेहि ते परियावेइ बाले पीलेइ अत्तट्टगुरु किलिट्टे ॥
४१. सद्दाणुवारण परिग्गहेण उपाय रक्खण- सन्निओगे । वए विओगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥
४२. सद्दे अतित्ते य परिग्गहे य
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आयई अदत्तं ॥
।
४३. तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे य मायामुसं वड्डड लोभदोसा तत्यावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥
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४४. मोसस्स पच्छाय पुरत्थओ य पओगकाले यदुही दुरन्ते एवं अदत्ताणि समाययन्तो सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ||
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शब्द की आशा का अनुगामी अनेक रूप चराचर जीवों की हिंसा करता है । अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अझानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है।
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शब्द में
अनुराग और ममत्व के
कारण शब्द के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में, उसको सुख कहाँ है ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है ।
शब्द में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता । वह असंतोष के दोष से दुःखी व लोभग्रस्त व्यक्ति दूसरों की वस्तुएँ चुराता है।
शब्द और परिग्रह में अतृप्त, तृष्णा से पराजित व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है । कपट और झूठ से भी वह दु:ख से मुक्त नहीं होता है ।
झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय भी वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखमय है । इस प्रकार शब्द में अतृप्त व्यक्ति चोरी करता हुआ दुःखी और आश्रयहीन हो है।
४५. सद्दाणुरत्तस्स नरस्स एवं इस प्रकार शब्द में अनुरक्त व्यक्ति कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? । को कहाँ, कब और कितना सुख तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं होगा ? जिस उपभोग के लिए व्यक्ति निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ दुःख उठाता है, उस उपभोग क्लेश और दुःख ही होता है ।
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