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उत्तराध्ययन सूत्र
३३. एमेव रूवम्मि गओ पओसं इस प्रकार रूप के प्रति द्वेष करने
उवेइ . दुक्खोहपरंपराओ। वाला भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की पदुद्रुचित्तो य चिणाइ कम्मं परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता
है, वे विपाक के समय में दु:ख के
कारण बनते हैं। ३४. रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो रूप में विरक्त मनुष्य शोकरहित
एएण दुक्खोहपरंपरेण। होता है। वह संसार में रहता हुआ भी न लिप्पए भवमझे वि सन्तो लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ कमल का पत्ता जल से। सोयस्स सदं गहणं वयन्ति श्रोत्र का ग्रहण (विषय) शब्द है। तं रागहेडं तु मणुन्नमाह। जो शब्द राग में कारण है, उसे मनोज्ञ तं दोसहेडं अमणुन्नमाहु कहते हैं। जो शब्द द्वेष का कारण है,
समो य जो तेसु स वीयरागो॥ उसे अमनोज्ञ कहते हैं। ३६. सदस्स सोयं गहणं वयन्ति श्रोत्र शब्द का ग्राहक है, शब्द
सोयस्स सबं गहणं वयन्ति। श्रोत्र का ग्राह्य है । जो राग का कारण रागस्स हेडं समणुन्नमाहु है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं जो मनोज्ञ शब्दों में तीव्र रूप से अकालियं पावइ से विणासं। आसक्त है, वह रागातुर अकाल में ही रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे विनाश को प्राप्त होता है, जैसे शब्द में सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ॥ अतृप्त मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता
३५.
३८. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं जो अमनोज्ञ शब्द के प्रति तीव्र
तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें
न किंचि सदं अवरज्झई से॥ शब्द का कोई अपराध नहीं है। ३९. एगन्तरत्ते रुइरंसि सद्दे जो प्रिय शब्द में एकान्त आसक्त
अतालिसे से कुणई पओसं। होता है और अप्रिय शब्द में द्वेष करता दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले है, वह अज्ञानी दु:ख की पीड़ा को प्राप्त न लिप्पअई तेण मणी विरागो।। होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं
होता है।
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