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अप्रमाद स्थान साधक की जीवन-यात्रा में प्रमाद सबसे बड़ा बाधक है,
अत: वह प्रमाद के स्थानों में सतत सावधान रहे।
साधन साधन हैं। वे अपने आप में न शुभ हैं, और न अशुभ। प्राप्त साधनों का उपयोग किस प्रकार से किया जाता है, इसी पर सब कुछ निर्भर है। वीतरागता जितेन्द्रिय बनने पर ही प्रगट होती है। और सरागता इन्द्रियों की दासता में से आती है । इन्द्रियाँ अगर न हों, तो न वीतरागता संभव है, और न सरागता । इसका स्पष्ट अर्थ है-साधनों का उपयोक्ता ही सब कुछ है। उसी पर निर्भर है कि वह किस दृष्टि से साधनों का शुभ अथवा अशुभ उपयोग करता है।
इस अध्ययन में समग्र अशुभ अध्यवसायों, अशुभ विचारों तथा अशुभ कार्यों से निवृत्ति के लिए साधक को आदेश है । अशुभ प्रवृत्तियाँ प्रमाद-स्थान हैं। प्रमाद-स्थान का अर्थ है-वे कार्य, जिन कार्यों से साधना में विघ्न उपस्थित होता है और साधक की प्रगति रुक जाती है। जैसे भोजन शरीर के लिए आवश्यक है। भोजन साधना में भी उपयोगी होता है। किन्तु अधिक भोजन से अनेक विकृतियाँ पैदा हो सकती हैं, अत: साधु अधिक भोजन न करे । संयत, नियमित और नियंत्रित जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है। जो अपनी अनियंत्रित इच्छाओं के अनुसार चलता है, इन्द्रियों का अर्थात् उनकी अमर्यादित वृत्तियों का स्वच्छन्द उपयोग करता है, उसका भविष्य अच्छा नहीं है। वह दुःखों के दारुण परिणामों से बच नहीं सकता है। अत: साधु सदा अप्रमत्त रहे। मूल में राग और द्वेष ही संसार परिभ्रमण के हेतु हैं, अत: उनसे दूर रहकर ही अपने शाश्वत लक्ष्य-मुक्ति तक पहुँचा जा सकता है।
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