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________________ २७ खलुंकीय अनुशासन आवश्यक है - संघ - व्यवस्था के लिए ! 1 गर्ग गोत्रीय 'गार्ग्य' मुनि अपने समय के योग्य आचार्य थे । संयम-साधना में निपुण थे । स्वाध्यायशील थे और योग्य गुरु थे । किन्तु उनके शिष्य उद्दण्ड, स्वच्छंदी और अविनीत थे । शिष्यों के अनुशासनहीन अभद्र व्यवहार से अपनी समत्व साधना में विघ्न आता देखकर गार्ग्य ने उन्हें छोड़ दिया और अकेले हो गए। आचार्य के समक्ष और कोई मार्ग नहीं था, क्योंकि समाधि और आत्मभाव में सहायक होना ही साधक के लिए साथी की उपयोगिता है । प्रथम अध्ययन की तरह ही इसमें विनय और अविनय की व्याख्या दी है । वस्तुत: अनुशासन और अनुशासनहीनता क्रमशः विनय और अविनय का ही अंग है। जो साधक अनुशासन की उपेक्षा करता है, वह अपने समुज्ज्वल वर्तमान और भविष्य को खो देता है। अनुशासनहीन अविनीत शिष्य उस खलुंक (दुष्ट) बैल की तरह होता है, जो मार्ग में गाड़ी को तोड़ देता है और मालिक को कष्ट पहुँचाता है । वह बात-बात पर आचार्य के साथ लड़ने-झगड़ने वाला और उनकी निंदा करने वाला होता है । अविनीत शिष्य के लिए उत्तराध्ययन निर्युक्ति में दंशमसक, जलौका, वृश्चिक आदि की उपमाएँ दी हैं, जो उसके उच्छृंखल एवं पीडक-भाव को सूचित करती हैं । Jain Education International ***** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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