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१४. अंगुलं
सत्तरत्तेणं
पक्खेण य दुअंगुलं । वड्डू हायए वावी मासेणं चउरंगुलं ॥
य
१५. आसाढबहुलपक्खे भद्दव कत्तिए य पोसे य । फग्गुण - वइसाहेसु नायव्वा ओमरताओ ॥ १६. जेट्ठामूले आसाढ - सावणे छहिँ अंगुलेहिं पडिलेहा । अहिं बीय-तियंमी तइए दस अट्ठहिं चउत्थे ॥
१७. रत्तिं पि चउरो भागे भिक्खू कुज्जा विक्खणो । तओ उत्तरगुणे कुज्जा राइभासु चसु वि || १८. पढमं पोरिसि सज्झायं बीयं झाणं झियायई । लगाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ॥ १९. जं नेइ जया रत्तिं नक्खत्तं तंमि नहचउब्भाए । संपत्ते सज्जायं पओसकालम्मि ॥
विरमेज्जा
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उत्तराध्ययन सूत्र
सात रात में एक अंगुल, पक्ष में दो अंगुल और एक मास में चार अंगुल की वृद्धि और हानि होती है । (श्रावण से पौष मास तक वृद्धि होती है। और माघ से आषाढ़ तक हानि होती है ।
आषाढ़, भाद्रपद, कार्तिक, पौष, फाल्गुन, और वैसाख के कृष्ण पक्ष में एक - एक अहो रात्रि (तिथि ) का क्षय होता है ।
जेष्ठ, आषाढ़ और श्रावण – इस प्रथम त्रिक में छह अंगुल; भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक — इस द्वितीय त्रिक में आठ अंगुल, तथा मृगशिर, पौष और माघ — इस तृतीय त्रिक में दस अंगुल और फाल्गुन, चैत्र, वैसाख- इस चतुर्थ त्रिक में आठ अंगुल की वृद्धि करने से प्रतिलेखन का पौरुषी समय होता है ।
औत्सर्गिक रात्रिकृत्य
विचक्षण भिक्षु रात्रि के भी चार भाग करे । उन चारों भागों में उत्तर- गुणों की आराधना करे ।
प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में नींद और चौथे में पुन: स्वाध्याय करे ।
जो नक्षत्र जिस रात्रि की पूर्ति करता हो, वह जब आकाश के प्रथम चतुर्थ भाग में आ जाता है, अर्थात् रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होता है, तब वह 'प्रदोषकाल' होता है, उस काल में स्वाध्याय से निवृत्त हो जाना चाहिए ।
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