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________________ २६ सामाचारी सम्यक् व्यवस्था और काल-विभाजन से जीवन में नियमितता आती है और कार्य व्यवस्थित होता है । प्रस्तुत अध्ययन में सामाचारी का विवेचन है । सामाचारी का अर्थ है— 'सम्यक् व्यवस्था' । अर्थात् इसमें जीवन की उस व्यवस्था का निरूपण है, जिसमें साधक के परस्पर के व्यवहारों और उसके कर्तव्यों का संकेत है। जैसे साधु कार्यवश बाहर कहीं जाए, तो गुरुजनों को सूचना देकर जाए । कार्य-पूर्ति के बाद वापिस लौटकर आए, तो आगमन की सूचना दे। अपने असद् व्यवहार के प्रति सजग रहे । श्रम-शील बने । दूसरों के अनुग्रह को सहर्ष स्वीकार करे । गुरुजनों का योग्य सम्मान करे । नम्र और अनाग्रही बने। 'पर' से उपरति और 'स्व' की उपलब्धि के लिए साधक साधु-जीवन को स्वीकार करता है । उसका बाह्य आचार वस्तुतः अन्तरंग की सम्यक् साधना का सहज परिणाम है । पारिवारिक अथवा सामाजिक बन्धनों की तरह सामाचारी नहीं है । वह कोई विवशता नहीं है, जो कुण्ठा को जन्म देती है; फलत: प्रगति के पथ का रोड़ा बन जाती है। वह तो अन्तर्जगत् का सहज उत्स होने से साधक जीवन की प्रगति के लिए सहायक है। अतः जीवन का स्वयं निर्धारित-व्यवस्थित रूप साधक का आनन्द है, मजबूरी नहीं है । इस अध्ययन में साधक जीवन की कालचर्या का विभागशः विधान किया है। दिन और रात के कुल मिलाकर आठ प्रहर होते हैं । उनमें चार २६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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