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________________ २३४ उत्तराध्ययन सूत्र -“भगवान पार्श्वनाथ और उनसे भी पहले के समय के लोग प्रकृति से सरल थे, साथ ही प्राज्ञ भी थे, अत: वे आसानी से बात समझ लेते थे और मान लेते थे; इसलिए नियमों की संख्या कम थी। सहज जीवन था, साधना भी सहज थी। अत: अचेल और सचेल का प्रश्न तब नहीं था। किन्तु आज लोगों के स्वभाव बदल गए हैं। वे सहज सरल नहीं रहे हैं। बहुत जटिल हो गये हैं। उनके लिए साधुता की स्मृति को बनाए रखने के लिए विशिष्ट उपकरणों की परिकल्पना की है। संघ व्यवस्थित साधना कर सके, इसके लिए नियमों को व्यवस्थित करना आवश्यक हो गया है। भगवान् महावीर धर्म-साधना का देश-कालानुसार व्यावहारिक विशुद्ध रूप प्रस्तुत कर रहे हैं। अत: भगवान महावीर आज के घोर अंधकार में दिव्य प्रकाश हैं। केशी कुमार गौतम के समाधान से प्रसन्न हुए। उनके संशय मिट गए। उन्होंने कृतज्ञता प्रकट की, गौतम को वंदन किया। और भगवान् महावीर की संघव्यवस्था एवं शासन-व्यवस्था को देश-काल की परिस्थिति के अनुरूप मानकर चतुर्याम से पंचयाम साधना स्वीकार की। इस प्रकार पार्श्वनाथ के अनेक शिष्यों ने भगवान् महावीर के संघ में शरण ग्रहण की। भगवान् महावीर ने केशी कुमार के सचेलक संघ को अपने संघ में बराबर का स्थान दिया। दोनों ने बदलती स्थितियों के महत्त्व को स्वीकार किया। वस्तुत: समदर्शी तत्त्वद्रष्टाओं का मिलन अर्थकर होता है। वह जन-चिन्तन को सही मोड़ देता है, जिससे विकास का पथ निर्बाध होता है। प्रस्तुत अध्ययन में केशी-गौतम का संवाद बहत ही महत्त्वपूर्ण है। वह युग-युग के सघन संशयों एवं उलझे विकल्पों का सही समाधान उपस्थित करता है। इस प्रकार के पक्षमुक्त समत्वलक्षी परिसंवादों से ही श्रुत एवं शील का समुत्कर्ष होता है, महान् तत्त्वों के अर्थ का विशिष्ट निश्चय होता है, जैसा कि अध्ययन के उपसंहार में कहा है "सुय-सीलसमुक्करिसो, महत्थऽत्थविणिच्छओ।" ***** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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