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करुणा के सागर विरक्त अरिष्टनेमि तदनन्तर मुनि बन गए ।
उक्त घटना से राजीमती सहसा मूच्छित हो गई। माता-पिता ने और सखी-सहेलियों ने बहुत समझाया। किसी दूसरे राजकुमार से विवाह का प्रस्ताव भी रखा। किन्तु अरिष्टनेमि के महान् वैराग्य की बात सुनकर वह भी संसार से विरक्त हो गई थी । इस बीच अरिष्टनेमि के भाई रथनेमि राजीमती के पास गए और विवाह का प्रस्ताव रखा। राजीमती ने इन्कार कर दिया । रथनेमि भी साधु
बन गए ।
राजीमती अनेक राजकन्याओं के साथ दीक्षित हुई । वे सभी मिलकर भगवान् अरिष्टनेमि को वंदन करने के लिए रैवतक पर्वत पर जा रही थीं । अचानक जोर की वर्षा ने सभी को सुरक्षित स्थान खोजने के लिए विवश कर दिया । सब इधर-उधर तितर-बितर हो गईं। राजीमती एक गुफा में पहुँची, जहाँ रथनेमि ध्यान में लीन खड़े थे । रथनेमि ने राजीमती को देखा। उसने पुनः विवाह की बात को दुहराया । राजीमती ने स्पष्ट कहा – “ रथनेमि ! मैं तुम्हारे ही भाई की परित्यक्ता हूँ। और तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो ? क्या यह वमन किये को फिर चाटने के समान घृणास्पद नहीं है ? तुम अपने और मेरे कुल के गौरव का स्मरण करो ! इस प्रकार के अघटित प्रस्ताव को रखते हुए तुम्हें लज्जा आन चाहिए ।"
राजीमती की बात से रथनेमि को अपनी भूल समझ में आई। अंकुश द्वारा जैसे मत्त हाथी वश में आ जाता है, शान्त-भाव से अपने पथ पर चल पड़ता है, वैसे ही रथनेमि भी राजीमती के बोध-वचनों से स्वस्थ होकर पुनः अपने संयम-पथ पर आरूढ़ हो गया ।
उत्तराध्ययन सूत्र
प्रस्तुत अध्ययन में पूर्व कथा के बाद रथनेमि को राजीमती के द्वारा दिया गया बोध संकलित है। बोध इतना प्रभावक है कि पथभ्रष्ट होते साधक को विवेक-मूलक प्रेरणा देता है, सावधान करता है । राजीमती का यह बोध इतना दीप्तिमान् है कि जैसे आज ही दिया गया है । यह वह शाश्वत सत्य है, जो कभी धूमिल नहीं होगा ।
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