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रथनेमीय पशुओं की करुण चीत्कार ने अरिष्टनेमि के मार्ग को बदला।
राजीमती की विवेकपूर्ण वाणी ने रथनेमि को बदला।
एक समय व्रज-मण्डल के सोरियपुर (शौर्यपुर) में राजा समुद्रविजय राज्य करते थे। अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि और दृढनेमि-ये चारों समुद्रविजय के पुत्र थे। ‘वसुदेव' समुद्रविजय के सबसे छोटे भाई थे। उनके पुत्र थे-कृष्ण और बलराम।
प्रतिवासुदेव जरासन्ध के आक्रमण के कारण व्रज मण्डल को छोड़कर यादव जाति के ये सब क्षत्रिय सौराष्ट्र पहुँचे और वहाँ द्वारिका नगरी का निर्माण कर एक विशाल साम्राज्य की नींव डाली। राज्य के नेता श्री कृष्ण वासुदेव हए।
अरिष्टनेमि महान् तेजस्वी प्रतिभासम्पन्न युवक थे, किन्तु भोगवासना से विरक्त थे, वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण के समझाने पर अरिष्टनेमि ने विवाह करना स्वीकार किया। भोजकुल के राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ विवाह होना निश्चित हुआ। कृष्ण वासुदेव बहुत बड़ी बारात के साथ अरिष्टनेमि को लेकर राजा उग्रसेन की राजधानी में विवाह मण्डप के निकट पहुँचे। अरिष्टनेमि को विवाह की खुशी में बजाए जाने वाले अनेक वाद्यों के तीव्र निनाद (कोलाहल) में भी बाड़ों और पिंजरों में अवरुद्ध पशु-पक्षियों का करुण-क्रन्दन सुनाई पड़ा। अपने सारथी से पूछा-“ये पशु-पक्षी क्यों बन्द कर रखे हैं ?” सारथी ने बँधे हुए पशुओं की ओर संकेत करके कहा- “महाराज ! आपके विवाह के उपलक्ष में भोज दिया जाएगा न। उसी के लिए इन हजारों पशु-पक्षियों को बन्द कर रखा है। मृत्यु के भय से संत्रस्त ये सब चीत्कार कर रहे हैं।"
अरिष्टनेमि ने यह सना तो आगे नहीं जा सके। करुणा के अवतार ने सारथी को आज्ञा दी, सब पशु-पक्षी छोड़ दिए गए। विवाह को बीच में ही छोड़कर वापिस लौट आए।
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