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उत्तराध्ययन सूत्र
समद्रपाल ने अपराधी को देखा। और वह सोचने लगा कि—“अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है और बुरे कर्मों का फल बुरा होता है । इस अपराधी ने बुरा कार्य किया है, उसका फल यह भोग रहा है । अच्छे अथवा बुरे कर्मों के फल कर्ता को भोगने ही होते हैं।" इस प्रकार कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध में वह गहराई से सोचता रहा और अन्त में संसार के प्रति उसका मन संवेग और वैराग्य से भर गया। अन्ततोगत्वा माता-पिता से अनुमति प्राप्त कर उसने मुनि-दीक्षा ले ली।
इस घटना के उल्लेख के बाद प्रस्तुत अध्ययन में साध के आन्तरिक आचार के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण बातों का उल्लेख है। साधु प्रिय और अप्रिय-दोनों ही स्थितियों में अपना सन्तुलन सुरक्षित रखे । व्यर्थ की बातों से अलग रहे । देश, काल और परिस्थिति को ध्यान में रखकर विहार करे। किसी के असभ्य और अशिष्ट व्यवहार से भी क्रुद्ध न हो। ज्ञान और संयम से अपनी यात्रा को सम्पन्न रखे।
प्रस्तुत अध्ययन में वर्णित पद्धति के अनुसार विशुद्ध संयम का पालन करके समुद्रपाल सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुआ।
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