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उत्तराध्ययन सूत्र
४८. न तं अरी कंठछेत्ता करेइ - "स्वयं की अपनी दुष्प्रवृत्ति
जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। शील दुरात्मा जो अनर्थ करती है, वह से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते गला काटने वाला शत्रु भी नहीं कर पच्छाणुतावेण दयाविहूणो॥ पाता है। उक्त तथ्य को निर्दय
संयमहीन मनुष्य मृत्यु के क्षणों में
पश्चात्ताप करते हुए जान पाएगा।" ४९. निरद्विया नग्गरुई उ तस्स -“जो उत्तमार्थ में अन्तिम
जे उत्तमटुं विवज्जासमेड। समय की साधना में विपरीत दष्टि इमे वि से नत्थि परे वि लोए रखता है, उसकी श्रामण्य में अभिरुचि दुहओ वि से झिज्जड़ तत्थ लोए। व्यर्थ है। उसके लिए न यह लोक है,
न परलोक है। दोनों लोक के प्रयोजन से शून्य होने के कारण वह उभय-भ्रष्ट भिक्षु निरन्तर चिन्ता में घुलता जाता
५०. एमेवऽहाछन्द-कुसीलरूवे ___-इसी प्रकार स्वच्छन्द और
मग्गं विराहेत्तु जिणुत्तमाणं। कुशील साधु भी जिनोत्तम- भगवान् कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा के मार्ग की विराधना कर वैसे ही निरहसोया परियावमेइ ।। परिताप को प्राप्त होता है, जैसे कि
भोग-रसों में आसक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी (गीध) पक्षिणी
परिताप को प्राप्त करती है।" ५१. सोच्चाण मेहावि सुभासियं इमं -“मेधावी साधक इस सुभाषित
अणुसासणं नाणगुणोववेयं को एवं ज्ञान-गुण से युक्त अनुशासन मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं (शिक्षा) को सुनकर कुशील व्यक्तियों महानियण्ठाण वए पहेणं॥ के सब मार्गों को छोड़कर, महान
निर्ग्रन्थों के पथ पर चले।" चरित्तमायारगुणन्निए तओ -"चारित्राचार और ज्ञानादि गुणों अणुत्तरं संजम पालियाणं। से संपन्न निर्ग्रन्थ निराश्रव होता है। निरासवे संखवियाण कम्मं अनुत्तर शुद्ध संयम का पालन कर वह उवेइ ठाणं विउलुत्तमं ध्वं ॥ निराश्रव (राग-द्वेषादि बन्ध-हेतुओं से
मुक्त) साधक कर्मों का क्षय कर विपुल, उत्तम एवं शाश्वत मोक्ष को प्राप्त करता है।"
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