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२०-महानिर्ग्रन्थीय
२११ ४३. कसीललिंगं इह धारडत्ता -"जो कशील-आचारहीनों का
इसिज्झयं जीविय वूहइत्ता। वेष, और ऋषि-ध्वज (रजोहरणादि असंजए संजयलप्पमाणे मुनिचिन्ह) धारण कर जीविका चलाता विणिघायमागच्छइ से चिरंपि ।।
है, असंयत होते हुए भी अपने-आप को संयत कहता है, वह चिरकाल तक विनिघात—विनाश को प्राप्त होता
४४. विसं तु पीयं जह कालकूडं -पिया हुआ कालकूट-विष,
हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं। उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र, अनियन्त्रित एसे व धम्मो विसओववन्नो वेताल-जैसे विनाशकारी होता है, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो॥ वैसे ही विषय-विकारों से युक्त धर्म भी
विनाशकारी होता है।" ४५. जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे । -"जो लक्षण और स्वप्न-विद्या
निमित्त - कोऊहलसंपगाढे। का प्रयोग करता है, निमित्त शास्त्र और कुहेडविज्जासवदारजीवी
कौतुक-कार्य में अत्यन्त आसक्त है,
मिथ्या आश्चर्य को उत्पन्न करने वाली न गच्छई सरणं तम्मि काले ॥
कुहेट विद्याओं से-जादूगरी के खेलों से जीविका चलाता है, वह कर्मफलभोग के समय किसी की शरण नहीं पा
सकता।" ४६. तमंतमेणेव उ से असीले -“वह शीलरहित साधु अपने
सया दुही विप्परियासुवेइ। तमस्तमस्-तीव्र अज्ञान के कारण संधावई नरगतिरिक्खजोणिं विपरीत-दृष्टि को प्राप्त होता है, फलत: मोणं विराहेत्तु असाहुरूखे॥
असाधु प्रकृति वाला वह साधु मौनमुनि-धर्म की विराधना कर सतत् दुःख भोगता हुआ नरक और तिर्यंच गति में
आवागमन करता रहता है।” ४७. उद्देसियं कीयगडं नियागं _“जो औद्देशिक, क्रीत-कृत,
न मुंचई किंचि अणेसणिज्जं। नियाग–नित्यपिण्ड आदि के रूप में अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता थोड़ासा-भी अनेषणीय आहार नहीं इओ चुओ गच्छइ कटु पावं ।।
छोड़ता है, वह अग्नि की भाँति सर्वभक्षी भिक्षु पाप-कर्म करके यहाँ से मरने के बाद दुर्गति में जाता है।"
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