________________
२०-महानिर्ग्रन्थीय
२०९
तब मैंने इस प्रकार कहा“विचार किया कि प्राणी को इस अनन्त संसार में बार-बार असह्य वेदना का अनुभव करना होता है।"
-“इस विपुल वेदना से यदि एक बार भी मुक्त हो जाऊँ, तो मैं क्षान्त, दान्त और निरारम्भ अनगारवृत्ति में प्रव्रजित-दीक्षित हो जाऊँगा।"
-"नराधिप ! इस प्रकार विचार करके मैं सो गया। परिवर्तमान (बीतती हई) रात के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो गई।”
३१. तओ हं एवमाहंसु
दुक्खमाहु पुणो पुणो। वेयणा अणुभविउं जे
संसारम्मि अणन्तए। ३२. सइं च जइ मुच्चेज्जा
वेयणा विउला इओ। खन्तो दन्तो निरारम्भो
पव्वए अणगारियं ॥ ३३. एवं च चिन्तइत्ताणं
पसुत्तो मि नराहिवा! परियट्टन्तीए राईए
वेयणा मे खयं गया। ३४. तओ कल्ले पभायम्मि
आपुच्छित्ताण बन्धवे। खन्तो, दन्तो निरारम्भो
पव्वइओ ऽणगारियं ॥ ३५. ततो हं नाहो जाओ
अप्पणो य परस्स य। सव्वेसिं चेव भूयाणं
तसाण थावराण य॥ ३६. अप्पा नई वेयरणी
अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहा घेणू
अप्पा मे नन्दणं वणं॥ ३७. अप्पा कत्ता विकत्ता य
दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च दुष्पट्ठिय- सुपट्टिओ॥
-“तदनन्तर प्रात:काल में कल्यनीरोग होते ही मैं बन्धुजनों को पूछकर क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगार-वृत्ति में प्रव्रजित हो गया ।"
-तब मैं अपना और दूसरों का, वस और स्थावर सभी जीवों का नाथ हो गया।"
__"मेरी अपनी आत्मा ही वैतरगी नदी है, कूट-शाल्मली वृक्ष है, कामदुधा-धेनु है और नन्दन वन है।"
-“आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता-भोक्ता है। सत् प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है। और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org