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एक बार राजगृह के बाहर पर्वत की तलहटी में विस्तृत - 'मण्डिकुक्षि' उद्यान में मगधेश्वर राजा ' श्रेणिक' घूमने गये थे । वहाँ ध्यान योग में लीन एक तरुण मुनि को देखा। मुनि के अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर राजा आश्चर्य में डूब गया। उसने मुनि से कहा - ' - " तुम मुनि कैसे बन गए? तुम्हारी यह युवावस्था और तुम्हारा यह दीप्तिमान् शरीर सांसारिक सुख भोगने के लिए है, न कि मुनि बनने के लिए।”
हूँ ।"
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महानिर्ग्रन्थीय
ऐश्वर्य और परिवार होने मात्र से कोई साथ नहीं होता ।
मुनि ने कहा- '
- " राजन् ! मैं अनाथ हूँ, असहाय हूँ, इसलिए साधु बना
मुनि के उत्तर पर राजा को विश्वास तो नहीं हुआ। फिर भी सोचा, " हो सकता है, ठीक हो । अभाव की स्थिति में और दूसरा चारा ही क्या है ?” अतः राजा ने कहा “मुनि ! लाचारी में साधु होने का क्या अर्थ ? तुम्हारा कोई नाथ नहीं है, तो मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ। मैं तुम्हें आमन्त्रण देता हूँ, तुम्हारे लिए सब सुख-सुविधा का प्रबन्ध करूँगा ।”
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मुनि ने कहा - " राजन् ! तुम स्वयं ही अनाथ हो, तुम मेरे नाथ कैसे बन सकोगे? जो स्वयं अनाथ होता है, वह दूसरों का नाथ कैसे बन सकता है ?”
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