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के साथ न कोई एक आगम कहा है, न लिखा है । उन्होंने तो भव्यात्माओं के बोधार्थ केवल धर्मदेशनाएँ दीं, आत्महितकर तत्त्वज्ञान का मर्म समझाया, और बस कृतकृत्य हो गए। भगवान् द्वारा समय-समय पर दिए गए धर्मोपदेशों का जो अंश गणधरों की स्मृति में रहा, उसे उन्होंने संकलन कर सूत्रबद्ध किया, और अपने शिष्यों को कण्ठस्थ कराया । लिखा उन्होंने भी नहीं ।
अंगबाह्य शास्त्र वे हैं, जो बाद में कालानुसार मन्दबुद्धि होते जाते शिष्यों के हितार्थ परम्परागत अंगसाहित्य के आधार पर स्थविरों ने संकलित किए । अंगबाह्य शास्त्रों की संख्या का उल्लेख आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में 'अनेक' कह कर किया है, अर्थात् उनकी दृष्टि में अंगबाह्य शास्त्रों की अंगशास्त्रों के अनुसार कोई नियत संख्या नहीं है ।
उत्तराध्ययन सूत्र
उत्तराध्ययन सूत्र की गणना अंगबाह्य शास्त्रों में है । ५ यद्यपि कल्पसूत्र (१४६) के अनुसार उक्त आगम की प्ररूपणा श्रमण भगवान् महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व अन्तिम समय में पावापुरी में की थी । इस दृष्टि से जिन - भाषित होने के कारण इसका स्थान अंगशास्त्रों में होना चाहिए था, अंगबाह्यों में नहीं । उत्तराध्ययन सूत्र की अन्तिम (३६ । २६८) गाथा को भी कतिपय टीकाकार इसी भाव में अवतरित करते हैं कि उत्तराध्ययन का कथन करते हुए भगवान् महावीर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। इस गुत्थी को सुलझाना काफी कठिन है । फिर भी इतना कह सकता हूँ, कि उत्तराध्ययन के कुछ अंशों की अवश्य भगवान् महावीर ने प्ररूपणा की थी, बाद में स्थविरों ने कुछ और अंश जोड़कर प्रस्तुत शास्त्र का उत्तराध्ययन के नाम से संकलन किया । वर्तमान में उत्तराध्ययन का जो रूप उपलब्ध है, उस पर से ऐसा लगता भी है कि उसका कुछ अंश पीछे से संकलित हुआ है । साक्षी के लिए केशिगौतमीय, सम्यक्त्व पराक्रम आदि कुछ अध्ययन सूक्ष्मता से देखे जा सकते हैं । केशिगौतमीय अध्ययन में तीर्थंकर महावीर का श्रद्धा भक्ति के साथ गौरवपूर्ण उल्लेख है, जो स्वयं भगवान् महावीर के अपने ही श्री मुख से सुसंगत नहीं लगता है । सम्यक्त्वपराक्रम में प्रश्नोत्तर शैली है, जो परिनिर्वाण के समय की वर्णित स्थिति से घटित नहीं होती है। दूसरे कल्पसूत्रकार ने उत्तराध्ययन को 'अपृष्ट
३. यद् गणधर शिष्यप्रशिष्यैरारातीयैरधिगतश्रुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनुग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम् । – तत्त्वार्थवार्तिक १ । २०।१३
४. श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम्-१ ।२०
५.
नन्दीसूत्र, तत्त्वार्थवार्तिक आदि ।
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