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उत्तराध्ययन सूत्र
माता-पिता और पुत्र का संवाद काफी सुन्दर एवं रसप्रद है। माता-पिता पुत्र को संयम से विरक्त करना चाहते हैं, जबकि पुत्र संसार से विरक्ति का समर्थन करता है। अन्त में नरक की वेदनाओं को सुनकर माता-पिता स्वीकृति के लिए कुछ-कुछ तैयार होते हैं। फिर भी पुत्र के प्रति ममत्त्व के कारण वे कहते हैं—“पुत्र ! साधुजीवन असंग जीवन है । वहाँ कौन तुम्हारा ध्यान रखेगा? बीमार होने पर कौन तुम्हारी चिकित्सा करेगा?"
मृगापुत्र कहता है-"जंगल में मृग रहते हैं। जब वे बीमार हो जाते हैं. तो उनकी देखभाल कौन करता है? जिस प्रकार वन के मृग किसी भी प्रकार की व्यवस्था के बिना स्वतन्त्र जीवन-यापन करते हैं, उसी प्रकार में भी रहूँगा। मेरी जीवन यात्रा मृगचर्यारूप रहेगी।"
मृगापुत्र के दृढ़ संकल्प को माता-पिता तोड़ नहीं सके । अन्त में उन्होंने दीक्षा की अनुमति दे दी।
मृगापुत्र मुनि बने और परम साधना के पश्चात् अन्त में उन्होंने सिद्धि प्राप्त की।
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