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मृगापुत्रीय अधिक सुख-सुविधा और सुरक्षा भी एक परतंत्रता है। पशु की अपेक्षा मनुष्य इन परतंत्रताओं में अधिक आबद्ध है।
राजकुमार 'बलश्री' सुग्रीव नगर में रहता था। उसके पिता का नाम बलभद्र था और माता का नाम मृगावती । बलश्री को माता के नाम पर लोग 'मृगापुत्र' नाम से भी पुकारते थे। ___एक बार 'मृगापुत्र' महल में अपनी रानियों के साथ शहर का सौन्दर्य देख रहे थे। राजमार्गों पर अच्छी-खासी भीड़ थी। स्थान-स्थान पर नृत्य हो रहे थे। लोग आ-जा रहे थे। इसी बीच राजमार्ग से जाते हुए एक प्रशान्त और तेजस्वी साधु पर मृगापुत्र की दृष्टि पड़ी। मृगापुत्र मन्त्रमुग्ध-सा देखता रह गया। मृगापुत्र के अन्तर में प्रश्न उभरने लगे-“ऐसा साधु मैं पहली बार ही नहीं देख रहा हूँ। याद आता है, इसके पहले भी मैं देख चुका हूँ । कहाँ देखा है? कब देखा है? पर देखा जरूर है। इस जन्म में ऐसी कोई घटना याद नहीं आ रही है, फिर भी इन्हें देखने का स्मरण कैसे हो रहा है?" प्रश्नों ने सुप्त स्मृति को झकझोर कर जगा दिया। बस, अब क्या था, पूर्व-जन्म की स्मृति हो आई-“मैं स्वयं भी तो ऐसा ही साधु था।” पूर्व-जन्म की स्मृति के साथ साधुता का भी स्मरण हो गया। मृगापुत्र को सांसारिक भोग एवं परिजन सब कोई बन्धनं दिखने लगे। संसार में रहना, उसके लिए असह्य हो गया। वह अपने माता-पिता के पास गया और बोला—“मैं साधु बनना चाहता हूँ, मुझे आप आज्ञा दें।”
माता-पिता ने मृगापुत्र को समझाने का प्रयत्न किया कि—“साधु-जीवन बहुत दुष्कर और कठोर होता है। लोहे के जौ चबाने के समान है। तुम साधुजीवन की कठोर चर्या सहन नहीं कर सकोगे। तुम सुकुमार हो।” ___मृगापुत्र उत्तर में—“पूर्व जन्म में नरक की भयंकर वेदनाएँ परतन्त्र और असहाय स्थिति में कितनी सहन की हैं"-इसका उल्लेख करता है ।
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