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१८ - संजयी
५२. कहं धीरो अहेऊहिं उम्मत्तो व्व महिं चरे ? विसेसमादाय
एए
सूरा दढपरक्कमा ॥
५३. अच्चन्तनियाणखमा
सच्चा मे भासिया वई । अतरिंसु तरिस्सन्ति अणागया ॥
तरन्तेगे
५४. कहं धीरे अहेऊहिं अत्ताणं परियावसे? सव्वसंगविनिम्मुक्के सद्धे हवइ नीरए ॥
-त्ति बेमि ।
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- "इन भरत आदि शूर और दृढ़ पराक्रमी राजाओं ने जिनशासन में विशेषता देखकर ही उसे स्वीकार किया था । अतः अहेतुवादों से प्रेरित होकर अब कोई कैसे उन्मत्त की तरह पृथ्वी पर विचरण करे ? "
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- " मैंने यह अत्यन्त निदानक्षमयुक्तिसंगत सत्य - वाणी कही है । इसे स्वीकार कर अनेक जीव अतीत में
संसार-समुद्र से पार हुए हैं, वर्तमान में पार हो रहे हैं और भविष्य में पार होंगे ।”
- " धीर साधक एकान्तवादी अहेतु वादों में अपने-आप को कैसे लगाए ? जो सभी संगों से मुक्त है, वही नीरज अर्थात् कर्मरज से रहित होकर सिद्ध होता है । "
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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