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संजयीय अगर तुम अभय चाहते हो, तो दूसरों को भी अभय दो।
कांपिल्य नगर का राजा संजय एक बार शिकार खेलने के लिए जंगल में गया था। साथ में सेना भी थी। सेना ने जंगल के हिरणों को केशर उद्यान की
ओर खदेड़ा और राजा ने एक-एक करके त्रस्त हिरणों को वाणों से बींधना शुरू किया। घायल हिरण इधर-उधर दौड़-भाग रहे थे, मर रहे थे, भूमि पर गिर रहे थे
और राजा घोड़े पर चढ़ा उनका पीछा कर रहा था। दूर जाकर कुछ मृत हिरणों के पास ही राजा ने, लतामण्डप में, एक मुनि को ध्यान में बैठे हुए देखा। राजा ने सोचा कि हो न हो, ये हिरण मुनि के हैं। मैंने मुनि के हिरण मार डाले हैं, बड़ा अनर्थ हो गया। मुनि क्रुद्ध हो गए तो लाखों-करोड़ों व्यक्तियों को एक क्षण में जला कर भस्म कर देंगे।
राजा इतना भयभीत हुआ कि कुछ पूछो नहीं। वह घोड़े से उतरा, मुनि के पास गया, और अत्यन्त नम्रता के साथ मुनि से अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगा।
मुनि गर्दभालि ने ध्यान खोलकर राजा से कहा- “राजन् ! मेरी ओर से तुम्हें अभय है। पर, तुम भी तो दूसरों को अभय देने वाले बनो। जिनके लिए तम यह अनर्थ कर रहे हो, वे स्वजन एवं परिजन कोई भी तम्हें बचा नहीं सकेंगे।"
गर्दभालि मुनि के उपदेश से राजा संजय मुनि बन गया और साधना में लग गया।
एक बार एक क्षत्रिय मुनि ने संजय को पूछा-“तुम कौन हो? तुम्हारे आचार्य कौन हैं?” मुनि संजय ने अपना संक्षिप्त-सा परिचय दिया। अनन्तर क्षत्रिय मुनि ने संजय मुनि को समझाया कि “एकान्तवाद अहेतुवाद है। वह मोक्ष
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