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पाप - श्रमणीय
भिक्षु होने के बाद जो साधना नहीं करता है, वह पापश्रमण है।
भिक्षु बनने के बाद साधक व्यक्ति को अपना जीवन साधनामय व्यतीत करना ही चाहिए; किन्तु अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो भगवान् महावीर उसे 'पापश्रमण' कहते हैं ।
साधु होने के बाद यह सोचना ठीक नहीं है कि अब मुझे और कुछ करने की क्या आवश्यकता है ? गृहत्याग कर अनगार हो गया हूँ, भिक्षु बन गया हूँ। मुझ कृतकृत्य को अब और क्या चाहिए ? आराम से सत्कार सम्मान के साथ भिक्षा मिल ही जाती है । अन्य सब सुविधाएँ भी प्राप्त 1 आनन्द से जीवन-यात्रा चल रही है । अब साधना के नाम पर व्यर्थ के आत्मपीड़न से क्या लाभ ?
यदि विवेकभ्रष्ट भिक्षु ऐसा सोचता है, तो वह साधनापथ से भटक जाता है । उसकी दृष्टि आत्मा से हट कर शरीर पर आ ठहरती है, फलत: सुबह से शाम तक वह यथेच्छ खाता-पीता है और आराम से सोया रहता है । न उसे ठीक तरह चलने का विवेक रहता है और न बैठने का । अपने उपकरणों को बिना देखे - भाले यों ही चाहे जहाँ रख देता है । सारा कार्य फूअड़पन से करता है और अव्यवस्थित रहता है । किसी के समझाने पर समझता भी नहीं है, अपितु उल्टा समझाने वाले की ही भूलें निकालने लगता है । उन पर क्रोध करता है । उनकी बात नहीं मानता है ।
आचार्य और उपाध्याय के प्रति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता 1 के अध्ययन से जी चुराता है। बिना कारण के यों ही उल्लंठ-पने से एक गण से दूसरे गण में जाता है। अविवेकी और मूढ़ है । विचारों से अस्थिर है। वह श्रमण (भिक्षु पापश्रमण है ।
श्रुत
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