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१६-ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान
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सूत्र ३-इमे खलु ते थेरेहि स्थविर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्यभगवन्तेहि
समाधि के ये दस स्थान बतलाए हैंदस बंभचेर समाहिठाणा पन्नता,
जिन्हें सुन कर, जिनके अर्थ का निर्णय जे भिक्खू सोच्चा, निसम्म, कर भिक्षु संयम, संवर और समाधि से संजम बहुले, संवर बहुले,
अधिकाधिक सम्पन्न हो—मन, वचन
और काया का गोपन करे-इन्द्रियों समाहिबहुले,
को वश में रखे–ब्रह्मचर्य को सुरक्षित गुत्ते, गुत्तिन्दिए, गुत्त बंभयारी
रखे-सदा अप्रमत्त होकर विहार करे । सया अप्पमत्ते विहरेज्जा। तं जहा
वे इस प्रकार हैंविवित्ताई सयणासणाई
जो विविक्त-अर्थात् एकान्त शयन सेविज्जा, से निग्गन्थे।
और आसन का सेवन करता है, वह नो-इत्थी-पसुपण्डगसंसत्ताई
निर्ग्रन्थ है। जो स्त्री, पशु और नपुंसक सयणासणाई सेवित्ता हवइ
से संसक्त (आकीर्ण) शयन और आसन से निग्गन्थे।
का सेवन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ तं कहमिति चे?
ऐसा क्यों? आयरियाह-निग्गन्थस्स
आचार्य कहते हैं जो स्त्री, पशु खलु इत्थीपसुपण्डगसंसत्ताई
और नपुंसक से आकीर्ण शयन और सयणासणाई सेवमाणस्स
आसन सेवन करता है, उस ब्रह्मचारी बम्भयारिस्स बंभचेरे संका वा, निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कंखा वा, वितिगिच्छा वा
कांक्षा (भोगेच्छा) या विचिकित्सा (फल समुष्पज्जिज्जा, भेयं वा लभेज्जा, के प्रति सन्देह) उत्पन्न होती है, अथवा उम्मायं वा पाउणिज्जा, दीहकालियं ब्रह्मचर्य का विनाश होता है, अथवा वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नताओ उन्माद पैदा होता है, अथवा वा धम्माओ भंसेज्जा। जम्हा नो दीर्घकालिक रोग और आतंक इथि-पसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाइं (आशुधाती शूलादि) होता है, अथवा सेवित्ता हवा से निग्गन्थे।
वह केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है। अत: स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त (आकीर्ण) शयन और आसन का जो सेवन नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ
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