________________
ब्रह्मचर्य-समाधि-स्थान ब्रह्मचर्य का अर्थ है-स्वरूपबोध और आत्मरमणता। व्रत, नियम एवं प्रतिज्ञाएँ उसके लिए वातावरण है।
अनन्त, अप्रतिम, अद्वितीय सहज आनन्द आत्मा का स्वरूप है, स्वभाव है। किन्तु अनादि की गलत समझ और उपेक्षा के कारण जीव ने शरीर, इन्द्रिय और मन में आनन्द को खोजा। इस खोज ने कुछ भ्रम पैदा किए, जिसके फलस्वरूप आत्मा ने आसक्ति और वासना का जाल अपने चारों तरफ बुन लिया, उसे आत्मा का स्वभाव मान लिया और उसी में उलझ गया। इस जाल को तोड़ना ही ब्रह्मचर्य है। भ्रम से मुक्त हो जाना ही ब्रह्मचर्य है। वह भ्रम स्वरूपबोध से टूट सकता है। आत्मरमणता से पर-रमणता का जाल नष्ट हो सकता है। इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य तक पहुँचने का और कोई मार्ग नहीं है। व्रत, नियम, बाह्य मर्यादाएँ ब्रह्मचर्य नहीं हैं। किन्तु ब्रह्मचर्य तक पहुँचने के लिए यह केवल एक वातावरण है। प्राथमिक स्थिति में साधक के लिए उसकी अवश्य आवश्यकता है। किन्तु व्रत एवं नियमों का पालन करने के बाद भी ब्रह्मचर्य की साधना शेष रहती है, चूँकि विकारों के बीज भीतर हैं, और नियम ऊपर हैं। बाहर के नियमों से भीतर के विकार नहीं मिटाये जा सकते हैं। फिर भी नियमों की उपयोगिता है। जिनसे स्वयं का बोध प्रकट हो सके, स्वयं को जानने का अवसर मिल सके, वे नियम साधना-क्षेत्र में अतीव उपयोगी हैं, चूँकि इन्द्रिय और मन के कोलाहलपूर्ण वातावरण में ब्रह्मचर्य की साधना कठिन है। उस कोलाहल को नियम रोकते हैं, जिससे साधक आसानी से 'स्व' की खोज कर सकता है।
*****
१५१ For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org