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१५ - सभिक्षुक
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१२. जं किंचि आहारपाणं विविहं गृहस्थों से विविध प्रकार के खाइम - साइमं परेसिं लद्धुं । अशनपान एवं खाद्य-स्वाद्य प्राप्त कर जो तं तिविहेण नाणुकंपे जो मनवचन काया से त्रिविध मण-वय-कायसुसंवुडे स भिक्खू ।। अनुकंपा नहीं करता है, आशीर्वाद
आदि नहीं देता है, अपितु मन, वचन और काया से पूर्ण संवृत रहता है, वह भिक्षु है ।
१३. आयामगं चेव जवोदणं च सीयं च सोवीर - जवोदगं च । नो हीलए पिण्डं नीरसं तु पन्तकुलाई परिव्वएस भिक्खू ||
१४. सद्दा विविहा भवन्ति लोए दिव्वा माणुस्सा तहा तिरिच्छा । भीमा भयभेरवा उराला जो सोच्चानवहिज्जइ सभिक्खू |
ओसामन, जौ से बना भोजन, ठंडा भोजन, कांजी का पानी, जौ का पानी- जैसे नोरस पिण्ड - भिक्षा की जो निंदा नहीं करता है, अपितु भिक्षा के लिए साधारण घरों में जाता है, वह भिक्षु है ।
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संसार में देवता, मनुष्य और तिर्यंचों के जो अनेकविध रौद्र, अति भयंकर और अद्भुत शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो डरता नहीं है, वह भिक्षु है ।
१५. वादं विविहं समिच्च लोए
लोकप्रचलित विविध धर्मविषयक
सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । वादों को जानकर भी जो ज्ञान दर्शनादि पन्ने अभिभूय सव्वदंसी स्वधर्म में स्थित रहता है, जो कर्मों को उवसन्ते अविहेड स भिक्खू ॥ क्षीण करने में लगा है, जिसे शास्त्रों का परमार्थ प्राप्त है, जो प्राज्ञ है, जो परीषहों को जीतता है, जो सब जीवों के प्रति समदर्शी है और उपशान्त है, जो किसी को अपमानित नहीं करता है, वह भिक्षु
है ।
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