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भी कहते हैं। जैन-संस्कृति तथा जैन-परम्परा के मूल विचारों का और आचारों का मूल स्रोत आगम-वाङ्मय है । जैन-परम्परा का साहित्य बहुत विशाल है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी, मराठी, बंगला और अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी विराट् साहित्य लिखा गया है। यहाँ दिशामात्र दर्शन है। विषय प्रतिपादन : ___ आगमों में धर्म, दर्शन, संस्कृति, तत्त्व, गणित, ज्योतिष, खगोल, भूगोल
और इतिहास तथा समाज-सभी प्रकार के विषय यथा-प्रसंग आ जाते हैं। दशवैकालिक एवं आचारांग में मुख्य रूप से साधु के आचार का वर्णन है। सूत्रकृतांग में दार्शनिक विचारों का गहरा मंथन है। स्थानांग और समवायांग में आत्मा, कर्म, इन्द्रिय, शरीर, भूगोल, खगोल, प्रमाण, नय और निक्षेप आदि का वर्णन है । भगवती में मुख्यरूप से गौतम गणधर एवं भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तर हैं। ज्ञाता में विविध विषयों पर रूपक और दृष्टान्त हैं। उपासक दशा में दश श्रावकों के जीवन का सुन्दर वर्णन है। अन्तकृत् और अनुत्तरोपपातिक में साधकों के त्याग एवं तप का बड़ा सजीव चित्रण है। प्रश्न-व्याकरण में पाँच आश्रव और पाँच संवर का सुन्दर वर्णन किया है। विपाक में कथाओं द्वारा पुण्य और पाप का फल बताया गया है। उत्तराध्ययन में अध्यात्म-उपदेश दिया गया है। नन्दी में पाँच ज्ञान का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। अनुयोग द्वार में नय एवं प्रमाण का वर्णन है। छेद सूत्रों में उत्सर्ग एवं अपवाद का वर्णन है। राजप्रश्नीय में राजा प्रदेशी और केशीकुमार श्रमण का अध्यात्म-संवाद सजीव एवं मधुर है। प्रज्ञापना में तत्त्व-चिन्तन गम्भीर, पर बहुत ही व्यवस्थित है। आगमों में सर्वत्र जीवन-स्पर्शी विचारों का प्रवाह परिलक्षित होता है। आगमों की संख्या : ___ आगम-प्रामाण्य के विषय में एक मत नहीं हैं। श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक परम्परा ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, २ चूलिका सूत्र, ६ छेद, १० प्रकीर्णक-इस प्रकार ४५ आगमों को प्रमाण मानती है। इनके अतिरिक्त नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका-इन सबको भी प्रमाण मानती है, और आगम के समान ही इनमें भी श्रद्धा रखती है। श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा और श्वेताम्बर तेरापंथी परम्परा केवल ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद, १ आवश्यक-इस प्रकार ३२ आगमों को प्रमाणभूत स्वीकार करती है, शेष आगमों को नहीं। इनके अतिरिक्त नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं को भी सर्वांशत: प्रमाणभत स्वीकार नहीं करती। दिगम्बर-परम्परा उक्त समस्त आगमों को अमान्य घोषित करती है। उसकी मान्यता के अनुसार सभी आगम लुप्त हो चुके हैं, अत: वह ४५ या ३२ तथा नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, और टीका-किसी को भी प्रमाणभूत नहीं मानती।
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