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________________ वैदिक परम्परा के वेद : वेद, जिन और बुद्ध-भारत की परम्परा तथा भारत की संस्कृति के मूल-स्रोत हैं। हिन्दू धर्म के विश्वास के अनुसार वेद ईश्वर की वाणी हैं। वेदों का उपदेष्टा कोई व्यक्ति-विशेष नहीं था, अपितु स्वयं ईश्वर ने ही उनका उपदेश दिया था। मूल में वेद तीन थे। अत: उसको वेदत्रयी कहा गया। आगे चलकर अथर्ववेद को मिलाकर चार वेद हो गए। वेद की विशेष व्याख्या ब्राह्मण ग्रन्थ और आरण्यक ग्रन्थ हैं, यहाँ तक कर्मकांड की मुख्यता है । उपनिषदों में ज्ञानकांड की प्रधानता है। उपनिषद् वेदों का अन्तिम भाग होने से वेदान्त कहा जाता है। वेदों को प्रमाण मानकर स्मृति-शास्त्र तथा सूत्र-साहित्य की रचना की गई। मूल में इनके वेद होने से ही ये प्रमाणित हैं। वैदिक परम्परा का जितना भी साहित्य-विस्तार है, वह सब वेद-मूलक है । वेद और उसका परिवार, संस्कृत भाषा में है। अत: वैदिक धर्म के विचारों की अभिव्यक्ति सस्कृत भाषा के माध्यम से ही बुद्ध की वाणी : त्रिपिटक बुद्ध ने अपने जीवन काल में अपने भक्तों को जो उपदेश दिया था, त्रिपिटक उसी का संकलन है। बुद्ध की वाणी को त्रिपिटक कहा जाता है। बौद्ध परम्परा के समग्र विचार और समस्त विश्वासों का मूल त्रिपिटक है। पिटक तीन हैं-सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक । सुत्त पिटक में बुद्ध के उपदेश हैं। विनय पिटक में आचार है और अभिधम्म पिटक में तत्त्व-विवेचन है। बौद्ध परम्परा का साहित्य भी विशाल है, परन्तु पिटकों में बौद्ध धर्म के विचारों का सम्पूर्ण सार आ जाता है। अत: बौद्ध विचारों का एवं विश्वासों का मूल केन्द्र त्रिपिटक है। बुद्ध ने अपना उपदेश भगवान् महावीर की तरह उस युग की जन-भाषा में दिया था। बुद्ध ने जिस भाषा में उपदेश दिया, उसको पाली कहते है। अत: पिटकों की भाषा पाली भाषा है । महावीर की वाणी : आगम _ 'जिन' की वाणी में, 'जिन' के उपदेश में, जिसको विश्वास है, वह जैन है। राग और द्वेष के विजेता को 'जिन' कहते हैं। भगवान महावीर ने राग और द्वेष पर विजय प्राप्त की थी, अत: वे जिन थे, तीर्थङ्कर थे। तीर्थङ्कर की वाणी को जैन-परम्परा में आगम कहते हैं। भगवान् महावीर के समग्र विचार और समस्त विश्वास तथा सम्पूर्ण आचारों का संग्रह जिसमें हो, उसको द्वादशांग वाणी कहते हैं। भगवान् ने अपना उपदेश उस युग की जन-भाषा में, जन-बोली में दिया था। जिस भाषा में महावीर ने अपने विश्वास, अपने विचार और अपने आचार पर प्रकाश डाला, उस भाषा को अर्द्ध-मागधी कहते हैं। अर्द्ध-मागधी को देव-वाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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