________________
परिग्रह क्या है ? | ८५ मर्यादा करते समय उसके पास जितनी धन-सम्पत्ति है, उससे अधिक की भी वह मर्यादा कर सकता है, और जितनी है उतनी की भी ! मान जिए, एक गरीब है और उसे रोटी के भी लाले पड़े हुए हैं। वह मर्यादा करेगा, तो यही सोचकर करेगा कि अभी मेरे पास कुछ भी नहीं है, किन्तु सम्भव है, भविष्य में सम्पत्ति हो जाए। यही सोचकर वह एक लाख की सम्पत्ति की मर्यादा करता है, और संकल्प कर लेता है, कि एक लाख से अधिक सम्पत्ति की मैं इच्छा नहीं करूंगा । तो वह अपनी सीमा -रहित कामनाओं को सोमिल करता है, और वासनाओं के समुद्र में से एक बूंद के बराबर वासना रख छोड़ता है। दुनियां के अपरिमित धन में से अपने निर्वाह के लिए परिमित धन की ही मर्यादा करता है, और शेष धन के प्रति ममत्व-हीन बन जाता है । उस शेष धन को अपेक्षा, जिसकी ममता का उसने त्याग किया है, वह अपरिग्रही है ।
किन्तु एक धनी व्यक्ति है, और उसके पास करोड़ों की सम्पत्ति है । वह परिग्रह की मर्यादा करते समय एक अरब की मर्यादा करे, तो यह कोई सिद्धान्त नहीं है । ऐसा करने से इच्छापरिमाण व्रत के शब्दों का पालन भले हो, पर व्रत के मूल उद्देश्य का पालन नहीं होता, क्योंकि जहां तक जीवन-निर्वाह का प्रश्न है, उसके लिए करोड़ों की सम्पत्ति भी अधिक और अनावश्यक है; फिर वह उसे और क्यों बढ़ाना चाहता है ? अगर वह बढ़ाना चाहता है, तो उसकी इच्छा पर ब्रेक कहां लगा है ? दरिद्र की बात तो समझ में आ सकती है, परन्तु इस धनी की बात समझ में नहीं आती ।
आखिर व्रती, और अव्रती में कुछ अन्तर होना चाहिए, और वह सकारण होना चाहिए । व्रत लेने से पहले मनुष्य में जितनी तृष्णा, लालसा और ममता थी, और धन प्राप्ति के लिए हृदय में व्याकुलता थी, वह व्रत लेने के बाद कम होनी चाहिए । अगर वह कम नहीं हुई है, ओर ज्यों की बनी हुई है, तो व्रत लेने का उद्देश्य पूरा नहीं हुआ है । करोड़ों की सम्पत्ति होने पर भी और इच्छा परिमाण-व्रत लेकर भी जो रात-दिन हाथ पैसा, हाय पैसा, किया करता है, और अरबपति बनने के लिए मरा जा रहा है; कहना चाहिए, कि उसने इच्छापरिमाण व्रत का रस नहीं चखा, उसके माधुर्य का रसास्वादन नहीं किया । उसके अन्तर्जीवन पर उस व्रत का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । वह अब भी परिग्रह को विष नहीं, अमृत समझ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org