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८६ / अपरिग्रह-दर्शन रहा है; क्योंकि जीवन निर्वाह के लिए और संचय की आवश्यकता न होने पर भी वह संचय में निरत रहता है । रात-दिन समेटने में लगा है।
आशय यह है, कि जिसने परिग्रह को पाप का मूल समझ लिया है, जो परिग्रह को इस जन्म में भी व्याकुलता और अशान्ति का कारण समझ चुका है, और परलोक में भी अहितकर और अकल्याणकर जान चुका है, वह अनावश्यक संचय के लिए कदापि प्रवृत नहीं होगा। यदि प्रवृत्त होता है, तो मानना पड़ेगा, कि वास्तव में उसने परिग्रह के दोषों को नहीं समझा है, वह झूठ-मूठ ही व्रती श्रावक की कोटि में अपना नाम दर्ज कराने के लिए व्रत लेने का दंभ कर रहा है ।
अपरिग्रह व्रत का आगे जो फल होगा, सो तो होगा ही, परन्तु इसी जन्म में उसका महान् फल मिल जाना चाहिए। व्रत अंगीकार करते ही अन्दर में जलने वाली तृष्णा की आग बुझ जानी चाहिए, निस्पृह-भाव की वृद्धि होनी चाहिए, और जीवन में धन के प्रति स्निग्धता कम और रूक्षता अधिक होती जानी चाहिए । शान्ति, निराकुलता और तृप्ति का अनिर्वचनीय आनन्द बढ़ता जाना चाहिए। इसो में इच्छापरिमाण-व्रत की सार्थकता है । यही इस व्रत का महान उद्देश्य है । एक आचार्य कहते हैं ---
संसार-मूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः ।
तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहे ॥ आरम्भ से जन्म-मरण होते हैं, और आरम्भ का हेतु परिग्रह है। परिग्रह के लिए ही मनुष्य नाना प्रकार के पाप-कर्मों में प्रवृत होते हैं। अतएव जो उपासक बना है, श्रावक बना है, और जिसने इच्छापरिमाण व्रत अंगीकार किया है, उसे परिग्रह को क्रमशः घटाते जाना चाहिए ।
कितनी साफ दृष्टि है ! व्रत लेने के पश्चात् परिग्रह घटना चाहिए, बढ़ने का तो प्रश्न ही नहीं है। जो परिग्रह को पापमूल और अनर्थकर समझ लेगा, वह उससे दूर ही भागने का प्रयत्न करेगा। अगर पारिवारिक आवश्यकताएँ उसे वाधित करेंगी, तो भो वह अनावश्यक परिग्रह से तो बचता ही रहेगा, उसके मन में धन की तृष्णा नहीं होगा। वह धन-प्रेम नहीं करेगा, भले ही कट औषध के समान उसका सेवन करना पड़े।
_ चित्तेऽन्तर्ग्रन्थ-गहने बहिनिम्रन्थता वृथा। यदि चित्त में से परिग्रह सम्बन्धी आसक्ति न निकली या कम न हुई,
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