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________________ ८४ | अपरिग्रह-दर्शन दूसरी तरफ एक चक्रवर्ती है। वह लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक है । मैं पूछता है, परिग्रह किसमें ज्यादा है। ममत्व का त्याग दोनों ने नहीं किया है । चक्रवर्ती ने भी कोई मर्यादा नहीं की है, वस्तुओं को सीमित नहीं किया है, तो दोनों जगह परिग्रह है। दोनों में ही मूर्छा भाव है। आखिर, परिग्रह अव्रत में ही है। एक भिखारी फटा वस्त्र का टुकड़ा लेकर फिरता है, और उसने कोई व्रत-प्रत्याख्यान नहीं लिया है, तो वह परिग्रह के अन्दर है, भले ही उसके पास ज्यादा सामग्री नहीं है ! परन्तु राजा चेटक इतना बड़ा धनी और वैभव का स्वामी होने पर भी अपरिग्रही था । इसका कारण यही था, कि उसने श्रावक के व्रत ले लिए थे, वह व्रती था । पर गलियों के भिखारी ने कोई व्रत-नियम नहीं लिया था। अतएव अपरिग्रही राजा चेटक ही ठहरा, भिखारी नहीं। राजा चेटक ने सभी कुछ होते हुए भी परिग्रह की वृत्ति तोड़ दी थी, परन्तु भिखारी, अपने पास कुछ न होते हुए भी परिग्रहवृत्ति को, लालसा को लिए फिर रहा है। अतएव वह अपरिग्रही नहीं कहला सकता। तात्पर्य यह है, कि जहां परिग्रह की लालसा है, लोभ है, ममता है और आसक्ति है, वहीं परिग्रह है, चाहे बाह्य वस्तु पास में हो न हो, जहां लालसा और ममता नहीं है, वहां चक्रवर्ती की ऋद्धि भी अपरिग्रह है। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं, कि साधु वस्त्र-पात्र आदि वाह्य पदार्थ रखते हुए भी परिग्रही नहीं हैं और ज्ञातपुत्र ने मूर्छा-आसक्ति को परिग्रह कहा है। ममता-भाव को परिग्रह कहा है। ____ आज विश्व में और विशेषतः इस देश में, भगवान् महावीर के इस अपरिग्रह-व्रत का पालन करने वालों की बहत आवश्यकता है । जो धनवान् हैं, उन्हें सोचना चाहिए, कि आखिर वे किस प्रयोजन से अधिक धन कमा रहे हैं ? वे अधिक धन कमा कर उसका क्या करेंगे? क्या समस्त देश हमारा कुटम्ब नहीं है ? यदि समस्त देश हमारा विशाल कूटम्ब ही है, और वास्तव में है भी तो देश के हित के लिए, आवश्यकता पड़ने पर क्या अपना सर्वस्व त्याग देने के लिए तैयार नहीं रहना चाहिए ? ऐसा नहीं कि धन कमा कर वह सांप की तरह अकेला ही उस पर बैठ जाए और उसे जरा भी इधर-उधर न होने दे। परिग्रह की मर्यादा करते समय उसे समझ लेना चाहिए, कि मैं भविष्य में मर्यादा से अधिक किसी भी वस्तु की कामना नहीं करूंगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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