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७६ | अपरिग्रह-दर्शन
विचार करना चाहिए, कि यह रोटी कहां से आई है, कैसे आई है, और किस रूप में आ रही है ? यह इस जीवन में प्रकाश दे सकती है या नहीं ? मेरी मर्यादा के अनुरूप है, या नहीं।
एक श्रावक ने प्रश्न किया था, कि धन यदि न्याय से आता है, तो वह बुरा कैसे हुआ?
मैंने अपनी पुरानी परम्परा का उल्लेख करते हुए कहा था, कि धन दो प्रकार से आया करता है-पुण्यानुबन्धी पुण्य से और पापानुबन्धी पुण्य से । जब पुण्यानुबन्धी पुण्य से धन आता है, तब उसको पाकर धनवान की सकल वत्तियां अच्छी हो जाती हैं, उसके विचारों और भावनाओं में पवित्रता आ जाती है, और उसे उस धन का सदुपयोग करने के लिए विचार-बुद्धि और चिन्तन भी मिलते हैं, जब वह उस धन का जन-कल्याण के लिए उपयोग करता है, तब उसका मन खुशी से नाचने लगता है, वह अवसर की तलाश में रहता है, कि जो कुछ पाया है, उसका मैं उपयोग कर ल', और जब अवसर मिलता है, तब वह भूखे को रोटी और नंगे को कपडा देता है, और किसी के भी कल्याण के लिए अपनी चीज का उपयोग करता है, तो आनन्द में विभोर हो जाता है। वह देने से पहले, देते समय और देने के बाद भी आनन्द की अनुभूति करता है। वह जब तक जीवन में रहेगा, आनन्द की लहर उसके जीवन से बहती हो रहेगी। वह देकर कभी पछताएगा नहीं।
ऐसा धन पुण्यानुबन्धी पुण्य से आया है, और आगे भी पूण्य की खेती बढ़ाता है। यह वह अन्न है, जो खाकर खत्म नहीं कर दिया गया है, किन्तु पहले पुण्य की खेती से आया है, और आगे भी खेत में फसल तैयार करेगा।
पुण्यानुबन्धी पुण्य-शाली व्यक्ति आनन्द से आनन्द में और सुख से सुख में, जीवन की यात्रा करता है, और एक दिन मोक्ष के द्वार पर पहुँच जाता है।
पापानुबन्धी पुण्य की बात इससे विपरीत है। जब तक धन नहीं आया, तब तक मनुष्य विचार करता है, कि धन आए तो यह कर लू, और वह कर लू, और ज्योंही धन आता है, कि उसके वे विचार न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं। आया हुआ धन उसके सामने अन्धकार का विस्तार कर देता है, उसके विचारों पर अन्धकार को कालिख पोत देता है।
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