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________________ परिग्रह क्या है ? | ७५ एगा। वह पैसा जहां कहीं भी जाएगा, जहर ही पैदा करेगा। संसार में घृणा, क्लेश और द्वेष की आग ही जलाएगा। कषाय-भाव को संसार की आग कहा है । इस रूप में हम समझते हैं, कि हमारे आचार्यों ने सुन्दर विश्लेषण किया है । वे जितने आदर्शवादी थे, उतने ही यथार्थवादी भी । उन्होंने यह स्वप्न नहीं देखा, कि गृहस्थ गृहस्थी में तो रहे, खाने-पीने में तो रहे, परन्तु आवश्यक चीजें प्रदान न करे। तो जैनधर्म ऐसी ख्याली दुनियां में नहीं रहा, क्योंकि ख्याली दुनियां में रहने वाले कभी जीवन की ऊँचाई को प्राप्त नहीं कर सकते । उसे व्यावहारिक होना आवश्यक है । जब तक जीवन है, और जीवन के मैदान में दौड़ना पड़ता है, तैयारी करनी पड़ती है और संघर्ष करने पड़ते हैं, तो इस बात की सावधानी रखनी चाहिए, कि उस संघर्ष और दौड़ में से विवेक न निकल जाए न्याय न निकल जाए और विचार न निकल जाए। जीवन का संघर्ष अज्ञान के अन्धकार में न किया जाए। गृहस्थ को यह न भूल जाना चाहिए, कि मैंने किस तरीके से पैसा पैदा किया है ? मेरे पास अन्याय और अत्याचार का तो कोई पैसा नहीं आ रहा है ? रोटी तो साधु को भी चाहिए। जब तक पेट है, तब तक रोटी को तो आवश्यकता है ही । जीवन की अपरिहार्य आवश्यकता है। मगर यहां भी यही प्रश्न होता है - कस्पट्ठा केण वा कडं ! अर्थात् - यह खाद्य सामग्री कैसे तैयार की तैयार की गई, और कितनी तैयार की गई है ? और और उद्देश्य तो नहीं रख छोड़ा गया है ? यह आहार, गृहस्थ ने सहज भाव से अपने लिए बनाया है, या दूसरों के लिए बनाया है ? साधु गृहस्थ से पूछ कर यह मालूम कर ले और गृहस्थ न बतलावे तो वातावरण से या दूसरे किसी उपाय से जान ले । इतने पर भी यदि उसे सन्देह रह जाए और विश्वास न हो, कि यह सहज भाव से बनाया गया है, तो साधु उस आहार को ग्रहण न करे । इस प्रकार साधु को भी उद्गम और 'उत्पादन' का विचार करना पड़ता है । जैसे साधु को विचार करना चाहिए, वैसे ही श्रावक को भी Jain Education International -- दशवेकालिक, ५ गई है, किसके लिए इसमें हमारा संकल्प For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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