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५२ | अपरिग्रह-दर्शन
अपेक्षा आधी योग्यता होनी चाहिए, और यह योग्यता इसमें मौजद है। अतएव दूसरा लड़का मन्त्री बनने योग्य है।
तो सन्त के कहने का तात्पर्य यह है, कि संसार की जो वासनाएँ हैं, वे जूठे टुकड़े हैं। उन्हें छाती से चिपटाए क्यों फिर रहा है ? उन्हें पूरी तरह देगा, तो तुझे सन्त की गद्दी अर्थात् साधुता प्राप्त हो जाएगी। और यदि उन वासनाओं को पूरी तरह त्यागने की शक्ति नहीं है, तो कम से कम आधी तो त्याग ही दे। वासनाओं का कुछ भाग भी त्याग देगा, तो सन्त की गद्दी न सही, श्रावक की पदवी तो मिल ही जाएगी।
पूर्ण त्याग साध की भूमिका है, और इच्छाओं को सीमित करना अर्थात् जितनी आवश्यकता है, उससे अधिक का त्याग कर देना, श्रावक की भूमिका है । और यहाँ आवश्यकता का अर्थ है-जीवन की वास्तविक आवश्यकता! इच्छा को ही आवश्यकता मान लेना भूल होगी। जिसके अभाव में जीवन ठीक तरह निभ न सकता हो, वही जीवन की वास्तविक आवश्यकता समझी जानी चाहिए।
जिस मनुष्य के जीवन में इन दो चीजों में से एक चीज आ जाती है, उसका जीवन कल्याणमय बन जाता है। वह इसी जीवन में निराकुलता
और सन्तोष का अपूर्व आनन्द अनुभव करने लगता है । जीवन में अनाकुलता ही तो सच्चा सुख एवं सच्ची शान्ति है। लेकिन जो व्यक्ति परिग्रह का त्याग अथवा परिमाण कर लेता है, वही तो साधक बन सकता है।
ब्यावर
अजमेर १७-११-५० )
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