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________________ ५० / अपरिग्रह-दर्शन रहने दो और साधारण आदमियों की तरह खड़े हो जाओ। सामान्य होकर ही सामान्य को समझा जा सकता है। दान का कार्य प्रारम्भ हुआ। बासी रोटियों के टुकड़े भिखारियों को मिलने लगे। भिखारी देख-देख कर हैरान रह गए। इतनी बड़ी घोषणा के बाद यह दान ? और वह भी राजा की ओर से ? मगर क्या किया जा सकता है ? राजा से लड़ा भी तो नहीं जा सकता। जो भाग्य में है, वही तो मिलेगा। भिखारी रोटियों के टुकड़े ले-लेकर बाहर निकलने लगे । सन्त फाटक पर खड़े थे। भिखारी निकले तो सन्त ने उनसे कहा- यह रोटी का टुकड़ा मुझे दे दो, तो मैं तुम्हें राजा बना दूं। भिखारी कहने लगे-महाराज, क्यों उपहास करते हो? कोई भी भिखारी अपना रोटी का टकडा देने को तैयार न हआ। वे समझ रहे थे, कि राजा बनाने का लोभ देकर यह हजरत रोटी का टुकड़ा भी छीन लेना चाहते हैं। ___ आखिर तो भिखारी ही ठहरे, उनकी कल्पना दूर तक कैसे पहुँच सकती थी? और वे अपने-अपने रोटी के टुकड़े को छाती से लगाए वहाँ से जाने लगे। सन्त ने देखा-कोई भी अपना पूरा टकड़ा देने को तैयार नहीं है ! तब उन्होंने उनसे कहा-अच्छा भाई, आधा टुकड़ा ही दे दो। दे दोगे तो मन्त्री बना दूंगा। मगर गली के भिखारी को मन्त्री-पद का स्वप्न आता, तो कैसे आता ? भिखारी निकलते गए और किसी ने आधा टुकड़ा भी नहीं दिया। किसी को विश्वास ही न होता था। ___ कई भिखारियों के निकल जाने पर एक लड़का आया। उसकी आंखों में एक तरह की निराली रोशनी थी, किन्तु दुर्भाग्य ने उसको भिखारी बना दिया था। लेकिन उसमें सोचने-समझने का मादा तो था ही। वह फाटक से निकलने लगा तो उससे पूछा गया-क्या मिला है ? जो भो मिला, ठीक मिला। लड़का-यह रोटो का टुकड़ा ! जो हमारी तकदीर में था, मिल गया। आखिर भिखारी के भाग्य में रोटी के टुकड़े ही तो होगे। हीरेजवाहरात कैसे मिलते? सन्त ने सोचा-इसकी वाणी में त्याग का रस आ गया है। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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