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________________ और पुत्र का मुंह देख सकू, तो मेरा जीवन मन्त्री की भी यही स्थिति है। दीनानाथ ! बनकर आपके चरणों में उपस्थित हैं । तृष्णा की आग | ४६ आनन्दमय हो जाय । मेरे हम आपकी दया के भिक्षु क सन्त ने कहा- पुत्र चाहिए, तो पहले पिता का हृदय पा लो । पिता का हृदय न मिला, और पुत्र मिल गया, तो क्या लाभ होगा ? न पुत्र को सुख मिल सकेगा, न तुम को ही सुख प्राप्त हो सकेगा । अतएव हे राजन् ! पहले पुत्र के लिए चिन्ता न करो, पितृ-हृदय पाने के लिए चिन्ता करो । राजा ने कहा- महाराज ! पुत्र के अभाव में कोई पिता नहीं होता, और जब तक पता नहीं है, तब तक पिता का हृदय वह कहीं से लाए ? आपकी कृपा हो जाए तो मैं पिता का हृदय भी प्राप्त कर लूँ । पुत्र के होने पर ही तो पिता का हृदय पाया जा सकता है । तबसन्त ने सहज मधुर स्वर में राजा से पूछा यह तुम्हारी सारी प्रजा तुम्हारी बेटा-बेटी है, या बाप है ? जब से तुम सिंहासन पर बैठे हो, प्रजा के मां-बाप कहलाते आ रहे हो, और उसमें गौरव और आनन्द मानते रहे हो, फिर भी प्रजा के प्रति तुम्हारे अन्तःकरण में सन्तान का भाव न पैदा हुआ, तो अब और सन्तान पाकर क्या करोगे सन्तान पा भी लोगे, तो उसके प्रति पुत्र भाव कैसे उत्पन्न कर सकोगे ? अतएव पहले हृदय में पिता का भाव पैदा करो। तब मैं तुमको बना-बनाया पुत्र दे दूंगा । वह तुम्हारा नाम रोशन करेगा । ? इसके पश्चात् उस दार्शनिक सन्त ने कहा- सारे नगर में घोषणा करवा दो, कि कल भिखारियों को दान दिया जाएगा, और उनकी इच्छापूर्ति की जाएगी। और उस सन्त की इस आज्ञा के सम्मुख राजा ने अपना शीश झुका दिया । सन्त की बात को स्वीकार किया । उसी दिन नगर भर में ढिंढोरा पिट गया । भिखारी तो भिखारी हो ठहरे । जब सुना, कि कल राजा दान देगा, तो फूले न समाए । धन थोड़ा नहीं मिलेगा, वारे-न्यारे हो जाएँगे ! फिर क्या था । दूसरे दिन हजारों की संख्या में भिखारी एक बाड़े में इकट्ठ े हो गए। राजा जैसा दाता हो, तो फिर भिखारियों की क्या कमी ? राजा अपने मंत्री को साथ में लेकर, शान के साथ वहां जाकर खड़ा हो गया । तब उस विद्वान सन्त ने कहा- यह राजशाही और मंत्रीशाही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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