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तृष्णा की आग | ३६ सकती है ? इच्छाओं की पूर्ति भी शान्ति, स्थायी शान्ति नहीं ला सकतीक्योंकि इच्छाओं का कभी अन्त नहीं होता।
भगवान् महावीर ने एक बहुत सुन्दर बात, इस विषय में कही है। संसार में जो धन है, वह परिमित है, अनन्त नहीं है, और मनुष्य की इच्छाएँ अनन्त हैं। ऐसी स्थिति में परिमित धन से अपरिमित आकांक्षाएँ किस प्रकार तृप्त की जा सकती हैं ? जिनमें करोड़ों मन पानी समा सकता हो, उस तालाब में दो-चार चुल्लू पानी डालने से क्या वह भर जाएगा? भगवान् ने कहा है
जहा लाहो तहा लोहो, लाह। लोहो पवड ढइ । दो मास-कयं कज्ज, कोडिए वि न निटिठय ॥
-उत्तराध्ययन सूत्र यह एक महान् सूत्र है। इसमें जीवन का असलो निचोड़ हमारे सामने आ गया है। इस सूत्र ने जीवन की सफलताओं की कुञ्जी हमारे हाथ में सौंप दी है।
ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है; और ज्यों-ज्यों लोभ बढ़ता है, त्यों-त्यों लाभ को बढ़ाने की कोशिश बढ़ती है। इस तरह लाभ और लोभ में दौड़ लग रही है। इस स्थिति में शान्ति कहां ? विश्रान्ति कहां ? शान्ति कैसे मिले ?
कपिल महर्षि का उदाहरण हमारे सामने है । वह जितनो गरीबी में थे, उसमें दो माशा सोना ही उनके लिए बहुत था। उस पर ही उनकी आशा लगी थी। चाहते थे, कि दो माशा सोना मिल जाय, तो बहत अच्छा हो। कपिल उसे पाने के लिए कई बार गये, मगर उसे न पा सके।
बात यह थी, कि एक राजा ने दान का एक प्रकार से नाटक खेल रखा था। उसने नियम बना लिया था, कि प्रातःकाल सबसे पहले, जो ब्राह्मण उसके पास पहुँचेगा, उसे वह दो माशा सोना भेंट करेगा। उस दो माशे सोने के लिए न मालूम कितने लोगों का कितना समय नष्ट होता था। उस दो माशे सोने को प्राप्त करने के लिए इतने मनुष्यों की लालस। जाग उठी थी, कि दरबार में एक अच्छी खासी भीड़ लग जाती थी । परन्तु जिसका नाम पहले नम्बर पर लिखा जाता, वही भाग्यवान् उस सोने को पाता था। शेष सब हताश होकर लौटते थे।
यह दान था या दान का नाटक था? इस मीमांसा में हमें नहीं
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