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________________ २४ / अपरिग्रह-दर्शन हुआ, और रक्त की नदियां वह निकली तो दुर्योधन की परिग्रह की जो वृत्ति है, कुछ भी न देने की जो भावना है, और जो कुछ पाया है उस पर सांप बन कर बैठने की जो इच्छा है, लाखों वर्षों से इन्सान उसी के चक्कर में पड़ा हुआ है। श्रेणिक तथा कोणिक के इतिहास की ओर दृष्टि दौड़ाइए। पिता और पुत्र के बीच कितने मधुर सम्बन्ध होने चाहिए ? पिता अपने पुत्र के लिए क्या कामनाएं और भावनाएँ रखता है ? संसार भर में दो ही जगहें हैं, जहां इन्सान अपने आपको पीछे रखने की और दूसरे को आगे बढ़ाने की कला में हर्ष से झूम जाता है । हमारे यहां कहा है पुत्रादिच्छेत्पराजयम् । शिष्यादिच्छेत्पराजयम्। एक सांसारिक क्षेत्र है और दूसरा धार्मिक क्षेत्र है । सांसारिक क्षेत्र में पिता और पुत्र खड़े हैं और आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरू और शिष्य । गुरू अपने शिष्य को आगे बढ़ता ही देखना चाहता है। जितना उसने अध्ययन किया है, उससे शिष्य अगर आगे बढ़ जाता है तो गुरू हर्ष से विभोर हो जाता है । शिष्य की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा को देखकर उसे प्रसन्नता ही होती है, और उसकी प्रतिष्ठा में चार चांद लगाने के लिए ही वह अपने मन और वचन से लग जाता है । शिष्य की प्रतिष्ठा वृद्धि में गुरू अपनी प्रतिष्ठा मानता है, अपने लिए गौरव की बात समझता है, अपने जीवन की सफलता समझता है। और सांसारिक क्षेत्र में, पिता-पुत्र में, यह भावना और भी अधिक गहरी देखी जाती है। मनुष्य क्यों कमा रहा है ? उससे पूछो तो वह अपने आपको भी अलग समेट लेता है और कहता है-मैं जो कुछ भी कर रहा है, अपने बाल-बच्चों के लिए कर रहा है। मतलब यह है कि उसने अपना अस्तित्व मिटा लिया है और अपने अस्तित्व को अपने बाल-बच्चों में ही बिखेर दिया है। इस प्रकार वह अपने बाल-बच्चों के जीवन को बनाने में ही लग जाता है, इसी के लिए अपनी समस्त शक्तियों का प्रयोग करता है और अपने आपको मिटा लेता है। पिता झौंपड़ी में रहता है और पुत्र ने यदि सोने का महल बनवा लिया है, तो भी उसे ईर्ष्या नहीं होती, उसे बुरा नहीं लगता । वह पड़ोसी का सोने का महल देख कर भले ही सहन न कर सके, उसके निर्माण में विघ्न भी डाले, पर पुत्र का सोने का महल देखकर अतिशय आनन्द का ही अनुभव करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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