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________________ मावश्यकताएँ और इच्छाएँ | २३ दुर्योधन, यदि तुम पाण्डवों को ज्यादा नहीं दे सकते हो, तो केवल पांच गांव ही दे दो। पांच गांवों से भी पांच पाण्डव अपना जीवन चला लेंगे। संसार में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ भी देखने में आती हैं ? जिस साम्राज्य को बढ़ाने के लिए पाण्डवों ने दुनिया भर से टक्करें ली थीं, और तब कहीं वह साम्राज्य बन पाया था, आज वे उसी साम्राज्य में से पांच ही गांव लेने को तैयार हैं। वे इतने से ही अपना काम चला लेंगे, अपना जीवन निभा लेंगे और उन्हें ज्यादा कुछ नहीं चाहिए । इस प्रकार एक तरफ इच्छाभों को रोकने की सीमा आ गई। जो पाण्डव सोने के महलों में रहते थे, वे आज झोंपड़ी में रहने को तैयार हो गए। और दूसरी तरफ वे असीमित इच्छाएँ हैं, कि अपना साम्राज्य तो था ही, दूसरों का भी साम्राज्य मिल गया फिर भी उन इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाई ? वास्तव में परिग्रह का भूत जब जिसके सिर पर सवार हो जाता है तो उसे बावला ही बनाकर छोड़ता है । वह चारों ओर से मनुष्य को पकड़े रहता है, वह मनुष्य के किसी भी अंग को खाली नहीं छोड़ता । क्या मजाल कि परिग्रह के भूत से ग्रस्त मनुष्य, मन से या वाणी से उसके विरुद्ध कोई हरकत कर सके, कुछ ले सके या कुछ दे सके। इस प्रकार जीवन का कोई भी अग उसकी पकड़ से खाली नहीं रहता, और इस रूप में मनुष्य का सारा जीवन जड़ बन जाता है। दुर्योधन के सिर पर परिग्रह का जबर्दस्त भूत सवार था । पाण्डवों के लिए कृष्ण की उस छोटी-सो मांग के उतर में उसने कहा-सूच्यनन व दास्यामि विना युद्धन केशव ! _ हे केशव ! तुम तो पांच गांवों को देने की बात कहते हो, न जाने वे कितने बड़े होंगे, परन्तु मैं तो सुई की नोंक के बराबर जमीन भी पाण्डवों को नहीं दे सकता । युद्ध के बिना मैं उन्हें कुछ भी नहीं दे सकता। दुनिया भर के सम्राट रहे, सोने के महलों में रहने वाले रहे हैं और खजाने में सांप बन कर रहे हैं, उनकी भी यही अन्तर्ध्वनि रही है, तो सांप हैं, हम अपने आप से तो देने से रहे. हां, मार कर ले जा स ते हो। जब तक जिन्दा हैं, तब तक नहीं देंगे, समाप्त करके कोई भले ले जा५ । यही दुर्योधन ने कहा । आसक्ति ही विनाश का कारण बनती है। दुर्योधन की इसी वृत्ति के परिणामस्वरूप इतना बड़ा महाभारत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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