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________________ आवश्यकताएँ और इच्छाएँ | २५. और पुत्र के मन में भी यही बात रहती है । वह जानता है, पिता जो कुछ भी कर रहा है, वह दुनिया के लिए नहीं कर रहा है, किसी गैर के लिए नहीं कर रहा है । आखिर पिता को जो भी मिल रहा है, वह आगे चलकर पुत्र को ही तो मिलना है । इस रूप में, भारत में, पिता-पुत्र के बीच, बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध रहे हैं । इतने घनिष्ठ कि इससे अधिक घनिष्ठता अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ है । किन्तु धन्य रे परिग्रह ! इस परिग्रह ने अमृत को भी विष बना दिया | जहां कहीं परिग्रह की वृत्ति बढ़ो और इच्छाओं का निरंकुश प्रसार हुआ, कि वह अमृत भी विष बन गया, उस माधुर्य में भी कटुता पैदा हो गई और संहार मच गया । परिग्रह समस्त पापों की जड़ है । अब श्रेणिक और कोणिक को बात सुनिए - पिता श्रेणिक बुड्ढे हो गए हैं, और पुत्र कोणिक जवान तो वह कुढ़ रहा है। राज्य करने की लालसा उसके मन में जाग उठी है तो वह चाहता है कि सिंहासन जल्दी खाली हो । वह सोचता है, दुर्भाग्य है कि पिता नहीं मर रहे हैं। उन्हें अब मर जाना चाहिए ! अब राज्य मैं करूँगा । स्वार्थ मनुष्य को अन्धा बना देता है। राजा श्रेणिक के जीवन की अन्तिम घड़ियां चल रही हैं। बहुत जीएंगे तो वर्ष दो वर्ष जो लेंगे । आखिर कहां तक जोएँगे ? और तब कोणिक को ही वह सिंहासन मिलने वाला है । इसमें कोई सन्देह नहीं है, कोई खतरा भी नहीं । वही उनका उत्तराधिकारी है। मगर कोशिक समय से पहले ही उसे खाली कराने का स्वप्न देख रहा है और शीघ्र से शीघ्र उस पर आसीन होने के मन्सूबे बना रहा है । कोणिक को क्यों इतनी उतावली है ? ऐसा तो नहीं है कि वह भूखा मर रहा है, नंगा रह रहा है या नंगे पैरों चल रहा है । साम्राज्य का सारा वैभव उसी का वैभव है और उसका वह मनचाहा उपभोग कर सकता है | उसे कोई रोक-टोक नहीं है । उसको जोवन को जितनी आवश्यकताएँ हैं, सब की सब पूरी हो रही हैं और वह ऐसी स्थिति में है कि चाहे तो हजारों का पालन-पोषण कर सकता है। ऐसा भी नहीं है कि बूढ़े श्रेणिक ने ही अपनी मुट्ठियों में सब कुछ बन्द कर रखा हो और कोणिक के हाथ में कुछ भी न हो । साम्राज्य उसके हाथ में है और हुकूमत उसके हाथ में । श्रेणिक तो उस समय नाम के राजा थे ओर घड़ो-दो घड़ी सिंहासन पर बैठ जाते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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