________________
आवश्यकताएं और इच्छाएँ | १६ दे सकता । संसार में कोरी कल्पनाओं से काम नहीं चलता। कल्पना के आकाश में तीव्र वेग से उड़ने वाले की अपेक्षा, धरती पर चार कदम चलने वाला कहीं अधिक अच्छा है । वह थोड़ा चला है, पर वास्तव में चला तो है। हाँ आदर्शवाद भी जीवन में आवश्यक है, और उसके अभाव में गति का कोई लक्ष्य और उद्देश्य ही नहीं रह जाता, किन्तु यथार्थता को भुला देने पर आदर्शवाद बेकार हो जाता है।
तो आदर्श के पीछे, जहाँ मनुष्य के पैर टिके हैं, उस जमीन को भी हमें नहीं भूलना है । आँखों की धारा तो बहुत दूर तक बहती है, किन्तु
आँखों में और पैरों में अन्तर रहता है। यह नहीं हो सकता, कि जहाँ आँखें हैं, वहीं पैर भी लग जाएँ । जीवन की जो दौड़ है, उसको कदम-कदम करके पूरा करना पड़ता है । आँखें तो बहुत दूर पर अवस्थित पहाड़ की ऊँची चोटी को, पल भर की देर किये बिना ही देख लेती हैं, और मन कह देता है, कि हमें वहाँ पहेचना है; परन्तु पैर तो आंख या मन के साथ दौड़ नहीं लगा सकते। उन्हें तो कदम-कदम करके ही चलना पड़ेगा।
अतएव जैनधर्म आदर्शवाद और यथार्थवाद का समन्वय करता है, और कहता है, कि जब तक मनष्य गृहस्थ-अवस्था में है, तब तक उसके साथ अपना परिवार भी है, समाज भी है और राष्ट्र भी है। इन सब को छोड़ कर वह अलग नहीं रह सकता है। जब अलग नहीं रह सकता है, तब इन सब की आवश्यकताओं को भी नहीं भूल सकता है। अगर वह भल जाएगा, तो अपने आपको ही भूल जाएगा । अतएव गृहस्थ अपनी आवश्यकताओं की उपेक्षा नहीं कर सकता। उनकी पूर्ति होनी चाहिए।
इसी कारण धर्मशास्त्र ने 'इच्छा-परिमाण' का व्रत बतलाया है. 'आवश्यकता-परिमाण' का व्रत नहीं बतलाया । आवश्यकताएँ तो आवश्यकताएँ ही हैं, और किसी भी आवश्यकता को भला नहीं जा सकता-छोड़ देना तो असम्भव-सा है । वास्तव में, वह आवश्यकता ही नहीं; जो छोड़ी जा सके । जो भली जा सके । यह तो इच्छा ही होती है, जो त्यागी जा सकती है।
__ मनुष्य की इच्छाएँ जब आगे बढ़ती हैं, तब अनेक नयी कल्पनाएं जाग उठती हैं। उन कल्पनाओं के कारण कुछ इच्छाएँ, आवश्यकताओं का रूप धारण कर मनुष्य के जीवन में ठहर जाती हैं। क्योंकि उन इच्छाओं को आवश्यकता समझ लिया जाता है, तो जीवन गलत रूप धारण कर लेता है। अतएव जैनधर्म कहता है, कि ऐसी इच्छाओं को, जो तुम्हारी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org