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________________ १८ / अपरिग्रह-दर्शन चाहता है । यदि मनुष्य उसका समाधान नहीं करता है, तो वह दुनिया के मैदान में टिक नहीं सकता है ! तो इस रूप में, जहाँ तक आवश्यकताओं का प्रश्न है, कोई भी धर्म इस दिशा में इन्सान के हाथ-पैर नहीं पकड़ेगा; और न कोई पकड़ने की कोशिश ही करेगा। अगर करेगा तो, वह सफल नहीं होगा। किन्तु इच्छामों को ही आवश्यकता समझ लिया गया, तो मनुष्य, मनुष्य नहीं रह जायगा। वह अपने जीवन को भी नष्ट करेगा और दूसरों के जीवन को भी! फिर वह तो दैत्य के रूप में संहार करना शुरू कर देगा ! अतएव सभी धर्मों ने इच्छा और आवश्यकता के अन्तर को समझने पर बल दिया है । अतः इच्छाओं को समझना आवश्यक है। जैन-धर्म निवृत्ति-प्रधान धर्म है। उसकी साधना बहुत बड़ी है और उसने बुराइयों को धोने के लिए ज्ञान का निर्मल जल दिया है। किन्तु हमें जानना चाहिए, कि जैन धर्म आदर्शवादी भी है, और यथार्थवादी भी। जीवन के लिए दोनों सिद्धान्त उपयोगी रहे हैं। जैन धर्म का आदर्शवाद यह है, कि वह हमारे समक्ष एक महान् जीवन का चित्र उपस्थित करता है। वह साधक को दौड़ने के लिए कह रहा है, और कह रहा है, कि जहाँ तू है केवल वहीं तू नहीं है । आज जहाँ तेरी स्थिति है,वहीं तेरी.मंजिल नहीं है ।तुझे आगे जाना है, बहुत आगे जाना है. इतने आगे जाना है,कि जहाँ राह ही समाप्त हो जाती है। तूने जो कुटुम्बपरिवार पा लिया है, उसी का उत्तरदायित्व तेरे लिए नहीं है। तेरी यात्रा वहीं तक सीमित नहीं है। तेरी यात्रा बहुत लम्बी है। तेरी यात्रा उस छोटे से घेरे से निकल कर अपने आपको विशाल संसार में घुला-मिला देने की है। यही आत्मा के विराट स्वरूप की प्राप्ति है। जब मनुष्य इतना विशाल और इतना महान बन जाता है, कि सारे संसार में घुल-मिल जाता है, क्षुद्र से विराट बन जाता है, और उसके मानस-सरोवर में उठने वाली अहिंसा और प्रेम की लहरों से समग्र संसार परिव्याप्त हो जाता है, तब उसमें भगवत्स्वरूप जाग जाता है। जिसे उस भगवत्स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है, उसे हम अहंन् या ईश्वर के रूप में पूजने लगते हैं। यह जैनधर्म का आदर्शवाद है और बहुत ऊंचा आदर्शवाद है। विगत काल के विकारों को जीतना ही हमारा आदर्श है। किन्तु जैनधर्म कोरा आदर्शवादी नहीं, यथार्थवादी भी है। कोरा आदर्शवाद खयाल ही खयाल होता है । वह प्रेरणा चाहे दे सके, प्रगति नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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