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१६४ ! अपरिग्रह-दर्शन
अन्दर चलती रहती है । यह समाजीकरण की प्रक्रिया उस समय होती है, trafe वह अपने चारों ओर व्यक्तियों के साथ सामञ्जस्य स्थापित करने का प्रयत्न करता है । समाज में रहने वाला व्यक्ति अल्प व अधिक रूप में उस समाज के शील, स्वभाव और आदतों को ग्रहण कर लेता है, जिसमें वह रहता है । प्रत्येक व्यक्ति अपने शैशव अवस्था से ही धीरे-धीरे समाज के नियमों के अनुकूल चलने लगता है । देशान्तर में रहने वाला व्यक्ति वहां के अपने नये समाज में घुल-मिल जाता है । समाजीकरण की यह प्रक्रिया व्यक्ति में आजीवन चलती है । वह जहां-जहां भी जाता है और जहां-जहां भी रहता है, वहीं वहाँ के समाज के संस्कारों को ग्रहण कर लेता है । हम किसी भी एक व्यक्ति के जीवन में जो कुछ अच्छापन अथवा बुरापन देखते हैं, वह सब कुछ उसका अपना नहीं है, उसमें से बहुत कुछ उस समाज से उसने ग्रहण किया है, जिसमें वह रह रहा होता है । जीवन जीने की पद्धति जो उसने सीखी है, विचार जो उसके पास हैं, अच्छे अथवा बुरे संस्कार जो वह संग्रह कर पाया है, वे सब अमुक अंश में बाहर से ही उसे प्राप्त हुए हैं। एक प्रकार से यह समाजीकरण को प्रक्रिया के परिणाम एवं फल हैं । व्यक्ति नयी समस्याओं का सामना करता है, और वर्तमान घटनाओं को पिछले अनुभवों की सहायता से समझता है । एक अर्थ में वह सामाजिक अनुरूप की उस मात्रा के अनुसार सोचता है और कार्य करता है, जो उसने प्राप्त की है ।
समाजीकरण की प्रक्रिया का सार यह है, कि व्यक्ति जो कुछ सीखता है, वह समाज के साथ सम्बन्ध स्थापित करके ही सीखता है । इसका अर्थ यह नहीं है, कि वह व्यक्तिगत रूप में कुछ नहीं सीखता । व्यक्तिगत रूप में भी वह अनेक बातें और अनेक आदतें सीख लेता है । परन्तु अधिकतर वह जो कुछ सीख पाता है, उसमें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में समाज का सम्पर्क ही मुख्य कारण है । समाज में रहकर वह जो कुछ ग्रहण कर पाता है, अथवा ग्रहण कर सकता है, उस ग्रहण में मूल शक्ति स्वयं उस व्यक्ति की हो होती है । ग्रहण करने की मूल शक्ति के अभाव में व्यक्ति कुछ ग्रहण नहीं कर सकता, अथवा बहुत कम ग्रहण कर पाता है । समाजीकरण की प्रक्रिया सदा एक जैसी नहीं चलती । उदाहरण के लिए किसी एक व्यक्ति का कुछ समूहों के प्रति समाजीकरण हो सकता है, परन्तु दूसरे समाजों के प्रति नहीं । वह एक दयाशील पति एवं पिता हो सकता है, परन्तु अपने नौकरों अथवा अपने अधीन रहने वाले अन्य
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